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T-33/29 उसपे ख़ुद को निसार करना था. द्विजेन्द्र द्विज

उसपे ख़ुद को निसार करना था
इश्क़ क्या बार-बार करना था?

अपना यूँ कारोबार करना था
ख़ुद को इक इश्तिहार करना था

ज़ीस्त को पुर-बहार करना
हश्र तक इन्तज़ार करना था

ग़म अता थी तो उसमें लुत्फ़ आता
यह भी परवरदिगार करना था

उससे हम इल्तिजा भी क्या करते
खु़द को ही शर्मसार करना था

पल रही थी भले ही दिल में ख़िज़ाँ
हमको ज़िक्रे-बहार करना था

ज़िन्दगी तुझसे क्या उलझते हम
खु़द को ही दरकिनार करना था

चाक अपना गिरेबाँ कर तो लिया
क्या इसे तार-तार करना था?

ख़ाहिशों की थी क्या बिसात आख़िर
अपने दिल को मज़ार करना था

खु़द से ख़ुद तक पहुँचना हो मुश्किल
इतना ऊँचा वक़ार करना था

क्या सुनाते उसे हम अपना हाल
क्या उसे अश्कबार करना था?

दिल यहीं रम गया था लेकिन फिर
हमको यह दश्त पार करना था

द्विजेन्द्र द्विज
09418465008

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15 comments on “T-33/29 उसपे ख़ुद को निसार करना था. द्विजेन्द्र द्विज

  1. वाह शानदार ग़ज़ल के लिए बधाई …..

  2. Bahut umda waaaaaaaaaaah
    nihaayat khoooSurat gazal

  3. वाहहहह हहहह,,,,लाजबाव शानदार ग़ज़ल ,👌👌👌👏👏👏

  4. वाहहहह हहहह,,,,लाजबाव शानदार ग़ज़ल ,👌👌👌👏👏👏

  5. shanda ghazal.har tarh se muqammal…waaa

  6. प्रणाम sir

    सबसे पहले बात उस शेर् की जो मेरे दिल में बस गया

    पल रही थी भले ही दिल में ख़िज़ाँ
    हमको ज़िक्रे-बहार करना था

    क्या खूब कहा है sir…
    बहुत उम्दा

    पूरी ग़ज़ल में आपकी शायरी की महक है।
    जहां हम एक शेर् न कह पाये आपके 3 मतले, और तीनों एक से बढ़कर एक। सभी शेर् क़माल हुए।

    “इतना ऊँचा वक़ार करना था”
    कितनी सादगी से गहरी बात।

    बहुत खूब ग़ज़ल हुई है sir
    हार्दिक बधाई

    नकुल

  7. दिल यहीं रम गया था लेकिन फिर
    हमको यह दश्त पार करना था

    Zindabaad Dwij Bhai kya khoob ghazal kahi hai … dheron daad

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