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ग़ज़ल:- डरा रहे है ये मंज़र भी अब तो घर के मुझे

डरा रहे है ये मंज़र भी अब तो घर के मुझे
दिखाई ख़ाब दिए रात भर खंडर के मुझे

मैं रोज़ ग़ज़लों में हर शाम चाँद टांकता हूँ
सितारे चूमते हैं शब ! उतर उतर के मुझे

गंवा दी उम्र तुझे नज़्म कर नहीं पाया
मिले हैं यूँ तो सलीक़े हरिक हुनर के मुझे

इस एक शौक ने मुझको मिटा दिया यारो !
बस एक बार कभी देखना था मर के मुझे

किनारे बैठ के करता हूँ नज़्म अश्कों को
नदी सुनाती है अफ़साने चश्मे-तर के मुझे

मैं इक अधूरी सी तस्वीर था उदासी की
किया है किसने मुकम्मल यूँ रंग भर के मुझे

दिनेश नायडू 09303985412

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2 comments on “ग़ज़ल:- डरा रहे है ये मंज़र भी अब तो घर के मुझे

  1. बेहद खूबसूरत

  2. बहुत खूब जनाब लाजवाब ग़ज़ल है

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