सुब्ह ने शाम लिखी शब ने सवेरा लिक्खा
सबने मिलजुल के तुम्हारा ही सरापा लिक्खा
बच्चे ने गेंद लिखी बूढ़े ने चश्मा लिक्खा
जिसकी जैसी थी ज़रूरत उसे वैसा लिक्खा
कैसे बतलाता हुदूदे ग़मे दौरां का हिसार
प्यास ऐसी थी कि सहरा को भी दरिया लिक्खा
आज के दौर पे लिखने को उठाई जो क़लम
भीड़ तो लिक्खी मगर भीड़ को तन्हा लिक्खा
हुक्म लाहक़ था तो हालात के हक़ में हमने
उजले काग़ज़ पे सियाही से सितारा लिख्खा
देखते बनता था साहिल का तलातुम नाज़िम
हमने मजधार को जब दिल का किनारा लिख्खा
नाज़िम नक़वी