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T-32/10 जो लिखा तेरे कलम ने वो तो तीखा लिक्खा. शिज्जू शकूर

जो लिखा तेरे कलम ने वो तो तीखा लिक्खा
पर ये अच्छा है बरहने को बरहना लिक्खा

रेत को आब-ए-रवाँ, धूप को झरना लिक्खा
प्यास इतनी थी कि सहरा को भी दरिया लिक्खा

शख़्स जो भीड़ का हिस्सा नहीं था उसके लिए
आख़िरश शाह ने इक दिन का अँधेरा लिक्खा

एक मुद्दत से अदब में है सियासत का चलन
हमज़बाँ जो न हुआ उसको ही झूठा लिक्खा

वो तो दरअस्ल सही सम्त था, नासमझों ने
जा-ब-जा उसके हर इक गाम को उल्टा लिक्खा

तेरे दिल में जो कभी शाम का मंज़र उभरा
तूने काग़ज़ पे फ़क़त सागर-ओ-मीना लिक्खा

मेरे चेहरे पे कई सूरतें देखी होंगी
जिसने दिल को मेरे टूटा हुआ शीशा लिक्खा

शिज्जू शकूर

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One comment on “T-32/10 जो लिखा तेरे कलम ने वो तो तीखा लिक्खा. शिज्जू शकूर

  1. शख़्स जो भीड़ का हिस्सा नहीं था उसके लिए
    आख़िरश शाह ने इक दिन का अँधेरा लिक्खा
    Waah waah .. Bahut badhiya tanz Shijju bhai

    एक मुद्दत से अदब में है सियासत का चलन
    हमज़बाँ जो न हुआ उसको ही झूठा लिक्खा
    Haqiqat bayaani..waah waah

    Behtreen ghazal hui hai Shijju bhai… waaah

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