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T-33/10 तख़्त को उस्तवार करना था. छिज्जू शकूर

तख़्त को उस्तवार करना था
शह को बस रोज़गार करना था

बेगुनाहों का कत्ल करके उन्हें
अदू को शर्मसार करना था

रात काली थी मानता हूँ मगर
सुब्ह का इंतज़ार करना था

क़ाफ़िला पास ही था मंज़िल के
बख़्त पर ऐतबार करना था

कितनी रातें इन्हीं में डूब गईं
आहों पर इख़्तियार करना था

चैन की नींद आ ही जाती ‘शकूर’
वज्द को दरकिनार करना था

छिज्जू शकूर
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2 comments on “T-33/10 तख़्त को उस्तवार करना था. छिज्जू शकूर

  1. छिज्जू शिकूर साहब, अच्छी ग़ज़ल कही मगर ये शेर क़ातिल है। वाह वाह, दाद क़ुबूल फ़रमाइये

    रात काली थी मानता हूँ मगर
    सुब्ह का इंतज़ार करना था

  2. ACHCHHI GHAZAL PAR DAAD KABOOL KAREN

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