नख़्ल-ए-दिल रेगज़ार करना था,
इक तसव्वुर ग़ुबार करना था.
तेरी मर्ज़ी!!! ये ज़ह्न दिल से कहे,
बस तुझे होशियार करना था.
वो क़यामत के बाद आये थे
हम को और इंतिज़ार करना था.
हाल-ए-दिल ख़ाक छुपता चेहरे से
जिस को सब इश्तेहार करना था.
लुत्फ़ दिल को मिला न ख़ंजर को
कम से कम आर-पार करना था.
चंद यादें जो दफ़्न करनी थीं
अपने दिल को मज़ार करना था.
बारहा दुश्मनी!! अरे नादाँ …..
इश्क़ भी बार बार करना था.
शर्त यूँ थी सो हार आये हम,
पीठ पर उस की वार करना था.
“नूर” सच बोल कर है क्यूँ ज़िंदा,
उस को तो संगसार करना था.
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निलेश “नूर”
वाह भाई जी खूब …..
शुक्रिया आ. गुमनाम भाई
Waah, Kya shandar ghazal hui hai. Dili daad.
शुक्रिया आ. अनाम जी
निलेश ‘नूर’ साहिब
अपको पहली बार पढ़ कर अच्छा लगा। दाद हक़ है, हाज़िर है। मुनासिब समझें तो अपना फोन नंबर भेजदें ताकि ग़ज़ल के साथ विया जा सके और राब्ता रखने में सहूलत रहे।
शुक्रिया आ. कैफ़ साहब ..
मेरा फोन नम्बर है 93020 66682
आभार
आदाब निलेश जी, बहुत उम्दा ग़ज़ल के लिए बधाई हो।
शुक्रिया आ. मोहन जी
Noor Sach bolkar hai kyu zinda
Usko to sangsaar karna tha
Bahut knoob soorat sher hai bhai dad kubool kijiye
शुक्रिया आ. साबिर साहब