Nazms
एक नन्हीं-मुन्नी सी नज़्म-स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’
घुटन ही घुटन है फ़ज़ा जैसे इक बोझ उठाये हुए है ये आधा उजाला तो बेहोश सा है अधूरा अँधेरा भी बेहिस पड़ा है यहां के सवेरों में शामें मिली हैं तो रातों में किरनों की किरचें मिलेंगी घुटन ही घुटन है ये तस्वीर तेरी जो दीवार पर है इसे क्या हटा दूँ? कि मुमकिन […]
एक नज़्म -नवनीत शर्मा
एक नज़्म उन ग़ज़लों–नज़्मों-कविताओं के नाम जो कही न जा पाईं इससे पहले जब तुम आईं रात बहुत सारी बाक़ी थी डेढ़ बजा था, सब कुछ चुप था सहर की आहट दूर बहुत थी ज़हन की बस्ती चूर बहुत थी जो बोझा ढोया था दिनभर जिस्म पे आकर बैठ गया था फिर भी कहा था […]
आवाज़ : एक नज़्म ( दिनेश नायडू )
कई दिन से कोई आवाज़ इक आसेब बन कर मेरे चारों ओर फिरती है बुलाती है मुझे, मजबूर कर देती है वो मुझको की मैं फिर रात की वीरानियों को अपने सीने से लगा लूँ , डूब जाऊँ शह्र की वीरान सड़कों में की मैं फिर दश्त की बेसिम्त वहशत ओढ़ लूँ, आँखों में सहरा […]
अश्वत्थामा -एक नज़्म-स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’
गुज़िश्ता सदियाँ बदन पे पहने भटक रहा है उसे नहीं है तलाश कोई तमाम भटकन है बेम’आनी कुछ ऐसी अफ़वाह सी सुनी है बदन को भट्टी ने कोढ़ की कुछ गला दिया है यहां वहाँ से लटकता रहता है गोश्त उसका जहां पे मणि थी वहाँ बस इक घाव है कि जिससे लहू रिसा करता […]
इक और नज़्म-मिरे ख़ामोश साथी-दिनेश नायडू
……..मिरे ख़ामोश साथी मिरे ख़ामोश साथी अब अपनी आंखें खोलो मिरी आंखों में देखो, मेरी बातें सुनो तुम ये कैसा मौन तुमने बसा रक्खा है ख़ुद में मुझे आवाज़ तो दो, कोई तो बात छेड़ो चलो अब जाग जाओ, उठो इस नींद से तुम अभी तुमने जहाँ में नहीं देखा है कुछ भी बहारों को […]
पांच छोटी-छोटी ताज़ा नन्हीं-नन्हीं नज़्में-दिनेश नायडू
1 :- गूँज कोई आवाज़ आती है अचानक मेरी खामोशियों में ख़लवतों में कि जैसे काँच गिर कर टूटता हो किसी सूने से कमरे में अचानक कि जैसे कोई सूनी वादियों में किसी का नाम ले कर रुक गया हो कि जैसे एकदम से ज़हन में बस कहीं से कोई बिजली कोंधती हो कोई आवाज़ […]
ओवर टाइम-स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’
भोर के हाथ में चाभियाँ आसमानों की दे कर रात को गए हुए इक पहर हो गया चाँद..कमज़ोर सा चाँद अब भी केबिन में अपने, फ़लक पर नज़र आ रहा है चाँद ने शिफ्ट अपनी बदल ली है या फिर कोई मजबूरी है उसकी के वो तयशुदा से वक़्त से कुछ अधिक काम करने लगा […]
ग़ायब कमरा- स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’
घर के जिस कमरे में जाऊं इक कमरा, जो ग़ायब है हर कमरे में साथ मिरे आ जाता है जैसे मेरा साया हो….. माज़ी का वो ग़ायब कमरा बंद ही रहता है अक्सर जैसे उसको खोलने वाली उसके ताले के कानों में ‘खुल जा सिम सिम’ कहने वाली चाभी खो बैठा हूँ कहीं पर.. लेकिन अपने आप […]
कश्मीर इन नवम्बर- मुहम्मद अलवी
ऊंचे बर्फ़ीले कुहसार झेलम, झीलें और चिनार डोंगे, शिकारे, हाउस बोट चलते फिरते ओवर-कोट राख बनती कांगड़ीयाँ फ़ेरन में बुझती ख़ुशियाँ भाई ज़रा बतलाना तो धूप कहाँ मिलती है यहाँ.. -मुहम्मद अलवी
बूढा आदमी-मुहम्मद अलवी
दिनों का लहू मेरे बालों में गिरकर सफ़ेद हो गया है हज़ारों की तादाद में चाँद सूरज मिरी आँख के पास चमके हैं, टूटे हैं, गुम हो गए हैं मिरे नक़्शे-पा से ज़मीं भर गयी है! ज़मीं अब मिरी पीठ पर घूमती है! मैं अपने बदन में कई साल दफ़ना चुका हूँ !! -मुहम्मद […]
आज़ाद नज़्म-स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’
आज़ाद नज़्म- भीड़ से खौफ़ आता है मुझको भीड़ देखकर राह बदल लेता हूँ दूर से ही अक्सर मैं जैसे चोर बदल लेते हैं..देख के वर्दी वालों को चोर नहीं मैं लेकिन हर दम इक डर मेरी साँसों से लिपटा रहता है..साँसों को भारी रखता है.. कहीं भीड़ में किसी से कन्धा रगड़ गया तो? […]
नज़्म -दिनेश नायडू
चलो चलते है हम दोनों वहाँ पर जहाँ हो सिर्फ़ ख़ामोशी का आलम सितारों के ही बिल्कुल ठीक नीचे सुना है एक दुनिया है हमारी चलो चलते है हम दोनों वहाँ पर वहाँ पर हो कोई छोटा सा टापू हो चारों ओर जिसके बाण गंगा बिछा हो बादलों का कोई क़ालीन धनक आकाश से जाती […]
एक और नज़्म-दिनेश नायडू
रात है उम्मीद से मैं भी यहीं मौजूद हूँ बढ़ रहा हूँ गर्भ में ही रात के मैं दिन ब दिन मैं मुसलसल पी रहा हूँ रात की परछाइयाँ जी रहा हूँ रात की तारीकियाँ, तनहाइयाँ पालना मेरा झुलाती है हवा ये रात की मैं गुज़रते दिन के सायों में कहीं मौजूद हूँ अनगिनत तारों […]
एक नज़्म-दिनेश नायडू
दूसरी दुनिया से आया हूँ मैं लोगो उस दुनिया में छिप कर रहता है सूरज और ये रातें दिन सी लगती हैं बिल्कुल झूठी ज्योति तुम्हारी दुनिया की लोगो मेरी दुनिया में आने से डरती है जब तुम सब रातों का शोक मनाते हो और सारी शब दिन की बातें करते हो मेरी दुनिया तो […]
हवाओं के घर- मुहम्मद अलवी
हवा यूं तो हर दम भटकती है, लेकिन हवा के भी घर हैं भटकती हवा जाने कितनी दफ: शह्द की मक्खियों की तरह घर में जाती है अपने ! अगर ये हवा घर न जाए तो समझो के उसके लिए घर का दरवाज़ा वा फिर न होगा कभी और उसे और ही घर बनाना पड़ेगा […]
एक और नज़्म-दिनेश नायडू
चाँद सितारे आने को है रात हुई मेरा मन ख़ाबीदा होने वाला है उन रातों के पास हुआ है मेरा मन चाँद मुझे जब नामाबर सा लगता था मुझको भी सब शायर शायर कहते थे मैं सारी शब अपनी धड़कन लिखता था जिनको चाँद तुम्हारे घर पहुंचाता था उन रातों सा जब मैं डूबा रहता […]
एक नज़्म-दिनेश नायडू
अमूमन साल के इस वक़्त केवल ठण्ड होती है यहाँ मौसम बहुत ही सर्द हो जाता है इस दौरान अमूमन साल के इस वक़्त केवल ठण्ड होती है दरीचे से मैं बाहर देखता हूँ कैसा आलम है सफ़ेदी ही सफ़ेदी हर तरफ बर्फ़ीला मौसम है किसी कोरे से कागज़ सी मुझे ये दुनिया लगती है […]
एक नज़्म-दिनेश नायडू
हर इक दूसरे दिन सा है आज का दिन निकल आया है फिर से बेख़ौफ़ सूरज वही आसमाँ है,खुला, साफ़, नीला कुछ इक अब्र बिखरे हुए हैं फ़लक पर सभी कुछ भला सा नज़र आ रहा है वही अधखुला सा ये मेरा दरीचा वही जाना-पहचाना पीपल का इक पेड़ वही मुस्कुराती सी तन्हा सी शाखें […]
आज़ाद नज़्म-तुफ़ैल चतुर्वेदी
मुझे उसने बताया है मई में चंद दिन पहले बहुत ठंडे, बहुत बोझल, बुरे हालात का दिन था जब उसका ज़हन उलझा था ख़यालों में लहू बर्दाश्त की हद से गुज़र आया अना ज़ख्मी हुई माहौल इस दर्जा सुलग उट्ठा तहय्या कर लिया उसने कि अब वो ख़ुदकुशी कर ले कोई भी रास्ता शायद नहीं […]
मौत-मुहम्मद अलवी
तू हम सबकी माँ होती है हम सब तेरी गोद में आ कर गहरी नींद में खो जाते हैं देख मैं तेरे पीछे कब से हाथ पसारे भाग रहा हूँ माँ मुझको भी गोद में ले ले मैं बरसों से जाग रहा हूँ -मुहम्मद अलवी
धूप-मुहम्मद अलवी
उजली उजली धूप आँगन में दर आई हलके हलके क़दमों से दहलीज़ चढ़ी डरते डरते दरवाज़े में पाँव धरा घर में घोर अँधेरे को बैठे देखा शरमाई, झिझकी, घबराई, लौट गयी.. -मुहम्मद अलवी
रात और चाँद सितारे- मुहम्मद अलवी
रात एक समंदर है चाँद इक जज़ीरा है और ये सितारे सब नन्हे मुन्ने बजरे हैं जो बहुत ही आहिस्ता चाँद के जज़ीरे की सिम्त बढ़ते रहते हैं और सुबह होने तक एक एक करके सब काली काली लहरों में डूब डूब जाते हैं चाँद के जज़ीरे में भूत मुस्कुराते हैं.. -मुहम्मद अलवी
प्रिज़्म और पिरामिड -स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’
प्रिज़्म में इक उदासी भरी दुबली-पतली किरन, ऐसे दाख़िल हुई जैसे बाहर न आयेगी अब प्रिज़्म दिखने में तो इक पिरामिड सा ही होता है रौशनी का बदन लेकिन ऐसा नहीं बना कर ममी जिसको रक्खे वहाँ.. प्रिज़्म के सब फलक कोशिशें कर के भी जब बना ही न पाये किरन को ममी तो वो हंसने लगी […]
रोना आये तो – स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’
रोना आये तो जी भर कर रो लेना तुम आँखों में काग़ज़ होते हैं जिनपे खाब लिखे होते हैं अश्कों को गर रोकोगे तुम बहने से वो आँखों में भर जायेंगे धीरे धीरे वो सब कागज़ जिन पर ख़ाब लिखे होते हैं गल जायेंगे रोना आये तो जी भर कर रो लेना तुम..!
चाँद से… नज़्म
चाँद तू ही बता ख़ाब आते हैं हम सब को जो रात में उनका घर है कहाँ ? कैसे आते हैं वो ? रथ में बैठे हुए या कि चलते हुए देवताओं के जैसे ज़मीनों से थोड़ी सी ऊँचाई पर तैरते तैरते ? कैसे आते हैं वो ? घर में घुसना हो तो कैसे घुसते हैं […]
ख़यालों के समंदर में -मुहम्मद अलवी
पड़े रहना, पड़े रहना अजब राहत है बिस्तर में यूं ही जैसे नहीं ज़िन्दा शिकन आये न चादर में उतर जाना, उतर जाना ख़यालों के समंदर में वहाँ डूबे जहाज़ों में ख़ज़ाने ढूंढते रहना मज़े में ऊंघते रहना.. -मुहम्मद अलवी
एक पुल पर – स्वप्निल तिवारी “आतिश”
वो एक पुल था जहां मिला था मैं आख़िरी बार तुमसे जानां मुझे हमेशा की तरह पुल के उस ओर जाना था मैं जिधर से नदी को जाते हुए निहारूं मगर तुम्हें पुल का वो ही हिस्सा ज़ियादा भाया हमेशा जैसे जिधर से तुम डूबते हुए आफ़ताब को देख सकती थी वहीं पे डूबी थी अपने रिश्ते […]
चाँद पर – मुहम्मद अलवी
वहाँ कौन था? किस से कहते के हम बस्तियों में रहे पर अकेले रहे किस से कहते के हम बस्तियां छोड़कर भाग कर आये हैं किस से कहते के हम अपनी तन्हाइयां साथ ही लाये हैं वहाँ कौन था ! -मुहम्मद अलवी
परबत-मुहम्मद अलवी
उजली उजली झील को पहलू में रखकर अपना चेहरा देख रहा है इक परबत अपने आप में गुमसुम खोया खोया-सा जाने कब से बैठा है आईना लिए जाने कब से झील बनी है आईना जाने कितने मौसम आये, और गए झील न जाने कब कब उभरी और छलकी कब कब सिमटी, सुकडी, तह में बैठ […]
एक लड़की- निदा फ़ाज़ली
वो फूल फूल नज़र सांवली सी इक लड़की जो रोज़ मेरी गली से गुज़र के जाती है सुना है! वो किसी लड़के से प्यार करती है बहार हो के तलाशे-बहार करती है न कोई मेल न कोई लगाव है लेकिन न जाने क्यूँ, बस उसी वक़्त जब वो आती है कुछ इंतज़ार की आदत-सी हो […]
तमाशा – स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’
तमाशबीनों में मैं खड़ा हूँ मदारी सांप और नेवले को लड़ा रहा है सभी की साँसें थमी हुई हैं सभी ये भूले हुए हैं इक खेल है फ़क़त ये कभी नेवले पे सांप हमला जो कर रहा है क़दम खेंच के पीछे नेवला बचा के खुद को वो सांप के फन को अपने मुंह से […]
उपले- गुलज़ार
छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी हम उपलों पर शक्लें गूँथा करते थे आँख लगाकर, कान बनाकर नाक सजाकर पगड़ी वाला, टोपी वाला मेरा उपला तेरा उपला अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से उपले थापा करते थे हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर गोबर के उपलों पे खेला करता था रात को आँगन में जब चूल्हा जलता […]
आख़िरी दिन की तलाश – मुहम्मद अलवी
ख़ुदा ने क़ुरआन में कहा है के लोगो मैंने तुम्हारी ख़ातिर फ़लक बनाया फ़लक को तारों से चाँद सूरज से जगमगाया के लोगो मैंने तुम्हारी ख़ातिर ज़मीं बनाई ज़मीं के सीने पे नद्दियों की लकीरें खींचीं समन्दरों को ज़मीं की आगोश में बिठाया पहाड़ रक्खे दरख़्त उगाये दरख़्त पे फूल फल लगाए के लोगो मैंने […]
मामूल1 – बानी मनचंदा
एक बुढ़िया शब गए दहलीज़ पर बैठी हुई तक रही है अपने इकलौते जवाँ बच्चे की राह सो चुका सारा महल्ला और गली के मोड़ पर बुझ चुका है लैम्प भी सर्द तारीकी खड़ी है जैसे दीवारे-मुहीब 2 बूढी माँ के जिस्म के अन्दर मगर जगमगाती हैं हज़ारों मिशअलें आने वाला लाख बेहोशी की हालत […]
बग़दाद – गुलज़ार
जंग का कूड़ा एक जगह पर जम’अ हुआ है पहली बार है.. इतने सारे बाज़ू, टाँगे, हाथ और सर और पाँव ऐसे अलग-अलग बिखरे देखे हैं बचे खुचे पुरज़े लगते हैं ‘स्पेयर पार्ट्स’ हैं बाज़ू एक जुलाहे का, हिलता है अब तक काँप रहा है या शायद कुछ कात रहा है टांग है एक खिलाड़ी […]
ये ऐशट्रे पूरी भर गयी है..!! – गुलज़ार
जगह नहीं है और डायरी में ये ऐशट्रे पूरी भर गयी है. भरी हुई है जले-बुझे अधकहे ख़यालों की की राखो-बू से ख़याल पूरी तरह से जो के जले नहीं थे मसल दिया या दबा दिया था, बुझे नहीं वो कुछ उनके टुर्रे पड़े हुए हैं बस एक-दो कश ही ले के कुछ मिसरे रह […]
सैनिक व्यथा-गौतम राजरिशी
सैनिक व्यथा {कश्मीर में लागू आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट AFSPA को हटाने की चल रही मुहिम पर एक सैनिक की प्रतिक्रिया} सुना है, चाहते हो छीनना वो सारे हक़ मुझसे कभी मुझको दिये थे तुमने जो ये (छद्म) जंग लड़ने को बहुत मुश्किल था जिसको जीतना है चलो राज़ी हूँ मैं तुम छीन लो, […]
कृष्ण – कुमार पाशी
सारे ब्रम्हांड में जब कोई भी न था सारे ब्रम्हांड में कोई होगा न जब वो कि था और वो होगा ये लिक्खा हुआ आसमानों में है उसके फ़रमान में, उस की सब दास्तानों में है जो हवाओं में है जो फ़ज़ाओं में है वो जो ऊंचा सभी देवताओं में है सारा ब्रम्हांड ही जिसकी […]
कोई तो होगा – कुमार पाशी
हमारी वादी में अब खिज़ां है सभी दरख़्तों नें अपने पत्ते उतार फेंके किसी की आँखों में आने वाले हसीं दिनों की चमक नहीं है किसी के चेहरे पे ज़िन्दगी की रमक़ नहीं है सभी ने शायद समझ लिया है की कल कोई मोजज़ा न होगा कभी ये मौसम हरा न होगा ये दिन जो […]
आज़ाद नज़्म-स्वप्निल तिवारी’आतिश’
दरवाज़े की ओट में सारा घर है मेरा दीवारें हैं, आँगन है, हर कमरा है.. बंद रहे दरवाज़ा तो दीवारें, आँगन, कमरे सब मिल कर साजिश करते हैं.. घर ही में के एक सुतूँ से ‘ज़ोर लगाकर हैया’ करके दरवाज़े को गेट मानकर दुश्मन के तगड़े क़िल’ए को तोड़ के बाहर आने की बातें करते […]
नज़्मे-मुअर्रा-गौतम राजरिशी
तुम जो नहीं होती तो, फिर… भोर लजाती ऐसे ही क्या थामे किरणों का घूँघट ? तब भी उठती क्या ऐसे ही साँझ ढले की अकुलाहट ? रातें होतीं रातों जैसी या दिन फिर दिन ही होता ? यूँ ही भाती बारिश मुझको चाँद लुभाता यूँ ही क्या ? यूँ ही ठिठकता राहों में मैं […]
मुसद्दस-दिलावर फ़िगार
मुसद्दस एक बस-दिलावर फ़िगार बस में लटक रहा था कोई हार की तरह कोई पड़ा था साया-ए-दीवार1 की तरह सहमा हुआ था कोई गुनाहगार की तरह कोई फंसा था मुर्ग़े-गिरफ़्तार2 की तरह मरहूम हो गया था कोई एक पाउं से जूता बदल गया था किसी का खड़ाउं से कोई पुकारता था मिरी जेट3 कट गयी […]
नज़्मे-मुअर्रा-स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’
इक शाम उठाकर साहिल से तुमने बाँधी है जुल्फों में इक रिबन बना कर लहरों से, अब सुब्ह जो खोली हैं जुल्फें इक झरना सा बह निकला है, इक लहर उजाले की जानां कल-कल कर बहती है जानां ये भीगे बाल सुख़ाओ ना, इक बादल की टॉवेल लाकर अब इनको ज़रा सा झटको भी अब […]
महफ़िले-मुशायरा-दिलावर फ़िगार
महफ़िले-मुशायरा { नजीबाबाद का गर्मियों में बंद पिक्चर हाल का मुशायरा जहां हवा का गुज़र न था } ये महफ़िले-सुख़न1 थी मई के महीने में शायर सभी नहाये हुए थे पसीने में ज़िंदा रहेंगे हश्र2 तक उन शायरों के नाम जो उस मुशायरे में सुनाने गये कलाम ‘बेकल’3 को बेकली थी ‘तबस्सुम’4 निढाल थे गुलज़ार5 […]
आज़ाद नज़्में-स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’
आफ़ताब भी शायद कोई फ़ोटोग्राफ़र है रात का नेगेटिव जो डार्करूम में अपने रोज़ रोज़ धोता है रोज़ रोज़ हम सबको दिन की इक नई तस्वीर सुब्ह सुब्ह मिलती है… …………………………. मछली उभर रही हैं तमाम शक्लें बनते बिगड़ते इन अब्रों में जिनमें इक मछली जैसा भी इक टुकड़ा है भरे हुए तालाब के ठहरे […]
पैमाना-रेहाना फ़रीदी
नज़्मे-मुअर्रा पैमाना आज फिर नज़रें चुरा कर उसने लड़खड़ाता सा कोई सच बोला जाने-पहचाने कई ग़म जागे इक नये दर्द ने खाता खोला हर नये मोड़ को मंज़िल कह कर क्या अजब शख्स है रुक जाता है चाहतें रूप बदल लेती हैं दिल को ये कह के भी समझाता है कभी बोसीदा इमारत में क़याम […]
हिमालय से वापस आ कर-रशीद जमाल फ़ारूक़ी
मुअर्रा नज़्म हिमालय से वापस आ कर झील में आसमान सोया था आबशारों में रो रहा था कहीं हँस रही थी ज़मीन फूलों में और धनक ओढ़नी सुखाती थी पर्वतों के सफ़ेद उजले सर तमकनत और विक़ार के पैकर आसमानों से बात करते थे घाटियों की उदास तन्हाई बाल खोले विलाप करती थी मुज़्तरिब पानियों […]
पुनर्जन्म-स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’
आज़ाद नज़्म पुनर्जन्म सफ़र कठिन है, बहुत कठिन है अभी तो बस इब्तिदा हुई है कहाँ पहुँचना है, जानते हो? कहाँ से निकले थे..भूल बैठे? सफ़र में ये लोग जो मिले हैं क्या अंत तक साथ में रहेंगे? वो मोड़ रस्ते में जो मिले थे तो क्या वो सचमुच कहीं मुड़े थे या मुड़ने का […]
आज़ाद नज़्म-स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’
आज़ाद नज़्म क्या हुआ शाम तू क्यूँ है इतनी उदास ? खेलते खेलते हाथ से छूटकर इस समंदर में सूरज की नन्ही सी इक गेंद ही तो गिरी है इस समंदर में तो कालिया भी नहीं जिससे लड़ना पड़े गेंद लेने को बस एक डुबकी लगा और खुद जा के ला वरना कर इंतज़ार सुब्ह […]
अंदेशा-कफ़ील आज़र
नज़्मे-मुअर्रा अंदेशा बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जायेगी लोग बेवज्ह उदासी का सबब पूछेंगे ये भी पूछेंगे कि तुम इतनी परीशां क्यूं हो जगमगाते हुए लम्हों से गुरेज़ां क्यूं हो उंगलियां उठ्ठेंगी सूखे हुए बालों की तरफ़ चूड़ियों पर भी कई तंज़ किये जायेंगे इक नज़र देखेंगे गुज़रे हुए सालों की तरफ़ लोग ज़ालिम […]