आंसुओं का सिंगार करना था
यूं तेरा इंतज़ार करना था
खुद को बादल बना लिया हमने
“हमको ये दश्त पार करना था”
दिल लगाने का काम था मुश्किल,
इक ख़ला को दयार करना था।
हश्र ये है कि , अब भी ज़िंदा हैं
अज़्म ये था कि प्यार करना था
एक कतरे लहू पे इतना शोर
ये बदन आबशार करना था
मिल गया क़ैस बीच में वर्ना
“हमको ये दश्त पार करना था”
मैं था जंगल में एक स्वर्ण हिरन
राम तक को शिकार करना था
उस परी पर ‘चराग़’ लौ को नहीं
रौशनी को निसार करना था
आयुष चराग़
आयुष चराग़ साहब, अच्छी ग़ज़ल कही। मिल गए क़ैस बीच में वरना.. अच्छी गिरह हुई। माधो राम जौहर साहब का मशहूरे-ज़माना शेर याद हो आया।
क़ैस जंगल में अकेला है मुझे जाने दो
ख़ूब गुज़रेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो
😍😍
बहुत बहुत शुक्रिया दादा !!!
आपका आशीर्वाद है बस…