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T-32/7 अपने किरदार को लिक्खा भी तो धुंधला लिक्खा. अभय कुमार ‘अभय’

अपने किरदार को लिक्खा भी तो धुंधला लिक्खा।
मेरी मजबूरी ने ऐसा भी फ़साना लिक्खा।

पहले ख़ुद को भी बहर तौर अकेला लिक्खा।
तब कहीं जाके तेरे वस्ल का किस्सा लिक्खा।

हमने जब कुछ भी लिखा ज़िक्र तुम्हारा लिक्खा।
नाम में क्या है तुम्हारा या किसी का लिक्खा।

ज़ुल्फ़ बिखराई ज़रा उसने तो ऐसा भी हुआ
शाम लिखनी थी जहां हमने सवेरा लिक्खा।

एक शायर के सिवा कौन समझ सकता है
शब को शबनम ने हरेक फूल प क्या क्या लिक्खा।

हो गया ग़र्क समुन्दर की वो गहराई में
अपना क़द जिसने भी अफ़लाक से ऊंचा लिक्खा।

मेरी बर्बादी-ए-दिल का वो उठाता ग़म क्या
आह ओ ज़ारी को मेरी एक तमाशा लिक्खा।

यूं मिला मुझको ‘अभय’ अपनी वफ़ाओं का सिला
मुझको अपनों ने नहीं ग़ैरों ने अच्छा लिक्खा।

अभय कुमार ‘अभय’

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