सब्र कुछ बादाख़्वार करना था
शाम का इंतिज़ार करना था
इश्क़ में ख़ुद बिखर गये आख़िर
टूट कर यूँ न प्यार करना था
बात गुल तोड़ने प ख़त्म हुई
मसअला ख़त्म ख़ार करना था
इश्क़ में जुरअतें भी लाज़िम थीं
ज़ब्त भी इख़्तियार करना था
रास आने लगी थी क़ैद मगर
उसका ज़िक्र ए बहार करना था
इतने बंधन कि क़ब्र हेच लगे
ऐसे जग को दयार करना था
उनको गुलशन की आज़माइश थी
“हमको ये दश्त पार करना था”
मनोज कुमार मित्तल ‘कैफ़’
09887099295
उस्तादों के कलाम पर क्या बात की जाये ? इसके सिवा कि भरपूर ग़ज़ल हुई और इसी की तवक़्क़ो थी भी। हज़ारहा दाद क़ुबूल फ़रमाइये।
कमाल की गजल मनोज भाई – ज़िंदाबाद !! हर शेर यादगार और मुकम्मल !!
Baat gul todne pe Khatm Hui
Masala Khatm khar karna tha
Very very nice gazal Hui hai sir ji dad kubul kijiye