ज़हर का अब उतार करना था
सामने से प्रहार करना था
काम कुछ इसप्रकार करना था
ये सफ़र यादगार करना था
चाक दामन को तार करना था
प्यार यूँ बे-शुमार करना था
धर्म-रक्षा अगर नशा है तो
ये नशा बार बार करना था
कोई मुश्किल नहीं यहाँ जीना
आदतों में सुधार करना था
नफ़रतें आगईं यहाँ कैसे
हमको तो सिर्फ़ प्यार करना था
कह दिया बेवफ़ा मुझे तुमने
एक पल तो विचार करना था
तू अगर दोस्त है तो फिर सुनले
थोड़ा छुपकर के वार करना था
हम फफोलों को देखते कैसे
हमको ये दश्त पार करना था
मनोज अबोध
लफ़्ज़ में मनोज अबोध साहब आपका स्वागत है। ठीक ग़ज़ल कही। वाह वाह, गिरह और इन अशआर पर विशेष रूप से दाद क़ुबूल फ़रमाइये।
धर्म-रक्षा अगर नशा है तो
ये नशा बार बार करना था
कोई मुश्किल नहीं यहाँ जीना
आदतों में सुधार करना था
नफ़रतें आगईं यहाँ कैसे
हमको तो सिर्फ़ प्यार करना था
हम फफोलों को देखते कैसे
हमको ये दश्त पार करना था
हम फफोलों को देखते कैसे
हमको ये दश्त पार करना था
MANOJ BHAI…ZINDABAD