खुद पे ही ऐतबार करना था
हमको ये दश्त पार करना था
वहशते-इश्क़ जब हुआ तारी
पैरहन तार-तार करना था
तुम न आये तुम्हारी मर्जी थी
हमको तो इन्तज़ार करना था
हिज्र में काम था यही यारों
चाँद – तारे शुमार करना था
उसकी गलियों में हम भटकते थे
उसको भी बेक़रार करना था
जो भी होना था हो गया “साबिर”
ग़म नहीं आशकार करना था
“साबिर” उस्मानी
+91 84006 50028
उसकी गलियों में हम भटकते थे
उसको भी बेक़रार करना था
Zindabaad
उसकी गलियों में हम भटकते थे
उसको भी बेक़रार करना था
हाय क्या सलीक़े से ख़याल बांधा है। अगले वक़्तों के उस्तादों की सी कहन। वाह वाह क्या कहने। दाद क़ुबूल फ़रमाइये।
Hausala afzai k liye bahut bahut shukriya sir g.
बहुत सुंदर ग़ज़ल के लिए, बहुत बहुत बधाई
ग़ज़ल अच्छी लगी वाह….
Gumnam g bahut bahut shukriya
वाह वाह.. बहुत ख़ूब जनाब साबिर साहब
बधाई
लाजवाब , खूब सुन्दर
Bahut bahut shukriya
साबिर साहब,
ग़ज़ल के लिये दाद क़ूबूल फ़रमाइये।
Bahut bahut shukriya MANOJ sir