हर खुशी को निसार करना था
इस तरह उन से प्यार करना था
वस्ल की राहतों से हम को तो
हिज्र को ग़मगुसार करना था
ज़ुल्फ की तीरगी से उन को तो
हर उजाले प वार करना था
दरगुज़र की सिफात से हम को
ज़ुल्म को शर्मसार करना था
याद आती है राहतों की तरह
आप को इन्तिज़ार करना था
झर गये हैं यक़ीन के पत्ते
इस खिज़ाँ को बहार करना था
संगमरमर के नूर से उनको
‘ताज’ को यादगार करना था
मुनव्वर अली ‘ताज’
09893498854
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झर गए हैं यक़ीन के पत्ते
इस खिज़ां को बहार करना था।
यूँ तो ग़ज़ल ही अच्छी कही है मगर ये शेर हासिले-ग़ज़ल है। वाह वाह क्या क़ातिल शेर निकाला। दाद हाज़िर है।