दर्द को चांद तो आंसू को सितारा लिक्खा।
ग़म को भी हमने कभी ग़म न तुम्हारा लिक्खा।
ज़िन्दगी जैसा तुझे पाया है वैसा लिक्खा।
है ग़लत क्या जो तमाशे को तमाशा लिक्खा।
बेबसी ख़ूब समझते हैं क़लम की हम भी
बारहा हमने भी क़ातिल को मसीहा लिक्खा।
इस ख़ता पर भी सज़ा पाई हमेशा हमने
शाम को शाम सवेरे को सवेरा लिक्खा।
इक चलन य भी बुज़ुर्गों से मिला है हमको
ख़ुद ग़लत नाचे भी आंगन को भी टेढ़ा लिक्खा।
नद्दीयां ख़ुश्क हुई बह के समुन्दर के लिए
और समुन्दर ने सदा ख़ुद को ही प्यासा लिक्खा।
तुझसे तहरीर का है कौन सा रिश्ता आख़िर
तुझको अपना कभी लिक्खा न पराया लिक्खा।
हां में हां से भी कई फ़ैज़ उठाते लेकिन
हमने हर ऐसे मुनाफ़े को ख़सारा लिखा।
मैं ही मैं जलवानुमा हूं जो बहर गाह तो फ़िर
हरम ओ दैर को भी आईना खाना लिक्खा।
जाने वो कैसे हैं जो मुझको बुरा कहते हैं
अच्छे लोगों ने तो अक्सर मुझे अच्छा लिक्खा।
सोच लो हाथ क़लम होंगे यक़ीनन ‘असरार’
हर अंधेरे को अगर तुमने अंधेरा लिकखा।
असरार किठौरी