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अलफ़ाज़ की शक्ल बदलना उचित या अनुचित- एक बहस

दोस्तों लियाक़त जाफ़री साहब की इस ग़ज़ल पर बहस 15 फ़रवरी तक मुल्तवी की गयी थी कि तरही पर ध्यान देना ज़ुरूरी था। आप सब भी इस बहस में भाग लीजिये। बस एक विनम्र निवेदन है कि अपनी बात दलील के साथ कहिये और ज़ुरूर कहिये  

‘उम्र भर धूप में नहाये हम’
तब कहीं जा के रौशनाये हम

इश्क़-आसेब के बसाये हम
एक उजड़ी हुई सराये हम

कितनी तेज़ी से सरबुलंद हुए
कितनी शिद्दत से इन्तिहाये हम

रौनकें सब हमीं से थीं मशरूत
बुझ गए सब तो जगमगाए हम

बस कि अपनी तलाश थी हम को
कैसे-कैसों को आशनाये हम

सब के दिल से उठे बरंगे-ग़ुबार
सबकी पलकों पे झिलमिलाये हम

रात भर खूब रोये, शिकवे किये
सुब्ह जी भर के मुस्कुराये हम

बेख़याली में आज पूरे रोज़
एक ही गीत गुनगुनाये हम

न कभी घर की सम्त ही लौटे
और न मंजिल पे पहुँच पाये हम

चीख़-चिल्ला के ख़ूब पानी पर
फिर जज़ीरे पे लौट आये हम

आख़िरश तख्ते-शाह तक पहुंचे
एक कशकोल के गदाये हम

हाय कितने बुरे हुए साबित
कितने अच्छे थे हाये-हाये हम

आफ़ताबों से चाँद-तारों से

‘जाफ़री’ और मलगिजाये हम

लियाक़त जाफ़री 09419184052

86 comments on “अलफ़ाज़ की शक्ल बदलना उचित या अनुचित- एक बहस

  1. Please delete the extra 6-7 comments @tufailchaturvedi and keep it to only 78 replies to your article on your website

  2. Please delete this comment ASAP @tufailchaturvedi as it is a duplicate of my earlier comment on your website, this is the favour which I want from you

  3. बंगाल की माटी,बंगाल का जल
    बंगाल की वायु,बंगाल का फल
    पुण्य हो,पुण्य हो,पुण्य हो हे भगवान||
    बंगाल का घर,बंगाल का बाज़ार
    बंगाल का वन ,बंगाल का बगीचा
    पूर्ण हो,पूर्ण हो,पूर्ण हो हे भगवान||
    बंगाली का पण,बंगाली की आशा
    बंगाली का काम, बंगाली की भाषा
    सत्य हो,सत्य हो,सत्य हो हे भगवान||
    बंगाली का प्राण,बंगाली का मन
    बंगाली के घर में जितने भाई-बहन
    एक हो,एक हो,एक हो हे भगवान||

    • This one is a duplicate of the one posted by Mr. @SatyajayMandal so please delete it @Admin, that is the favour I want

  4. बंगाल की माटी,बंगाल का जल
    बंगाल की वायु,बंगाल का फल
    पुण्य हो,पुण्य हो,पुण्य हो हे भगवान||
    बंगाल का घर,बंगाल का बाज़ार
    बंगाल का वन ,बंगाल का बगीचा
    पूर्ण हो,पूर्ण हो,पूर्ण हो हे भगवान||
    बंगाली का पण,बंगाली की आशा
    बंगाली का काम, बंगाली की भाषा
    सत्य हो,सत्य हो,सत्य हो हे भगवान||
    बंगाली का प्राण,बंगाली का मन
    बंगाली के घर में जितने भाई-बहन
    एक हो,एक हो,एक हो हे भगवान||

  5. Assalamu-alaikum, & Adaab Mere Buzurg-o-DostoN
    Liyaqat Sir, ChuNki MaiN Ik Adhnaa sa Kaavis Shayer huN, Choti Beher(Ramal)meiN Aapki Gazal MeiN Bharpur Taghazzul Aur Jadeediyat Main Apni Nazar Se Mehsus Kar raha huN, Aur IsmeiN Koi Shaq Nahi Ke Aapke Takhayyul Ke Mafhoom Be-MayineN heiN!
    Mu’addibana Guzurarish Ke Tamam Shura-karam Wazn-o-Beher Dar Kinaar Kr Pehle LafzoN Pe Gour KareiN(Grammer) Qaafiya Pey-maayi Pe Tavajjoh Ho! Aur Radeef ”HUM” se Shayer Ka Ishaara Jaaney ke Vo Hum Khud Ke Liye Hai ya Pulural HeiN.
    Agar Ye Radeef Shayer Khud ke liye Istmaal kiya hai toh. Phir Baat Aagey Karney se Koi Fydaa Nahi, kyuN ke ”HUM” se Muraad Ek Nahi Balki Ek Se Zaayid haiN
    Liyaqat Sir Aapse sirf Itna Puchna Chahta huN ke Gazal meiN Eibhaami kaifiyat Ke Sher KitneN heiN? Aur Takhayyul ke kitne?
    Masha-Allah Aap Khud Samjh Ke Samjhane ki KuNwat Rakhte heiN.
    Ye Na-cheez Adabi ki Class ka Tifl-e-Nou hai.
    Galati gar ho gayi Muaaf kijiyenga, Tamam Hazraath

  6. DOSTO…tamaam comments nazar se guzre…Liyaqat sahib ki ghazal paDhte hi zehan ko ek jhatka laga tha..unhoN ne sab kochauNkaya..shayad yehi un ka maqsad tha…magar is chauNke me khushgawaar hairat shaamil nahi thi balki..afsos naak thi.sirf munfarid dikhne ki…aur har tarah khud ko saheeh saabit karne ki purzor kaavish se labrez un ki tamaam daleeleN bhi saamne aayiN….go ke un ki fafm o faraasat par shak nahiN…magar isi tarah marzi ke mutaabiq alfaaz ki tashkeel har koi karta rahe…to har ek shakhs ki apni apni lughat bhi baazaar meN laani paDegi..sirf tarseel ablaagh ka bahaana nahi kiya jaa sakta…is liye …..
    lesaani toD phoD najaayez hai…yaani bhaasha se najaayez cheD chhaaD ..qabool karna ahl e zabaN ke liye mumkin nahiN….is liye Tufail sb se maiN poori tarah uttafiq huN

    • Ye Anonymous (अनामिया) kaun hai bhaai??
      MaiN samajh sakta huN, ye kaun ho sakte hainN.

    • ये आकाशवाणी है इसके साथ ही हमारी ये सभा समाप्त होती है –जय हिन्द

    • yaani bhaasha se najaayez cheD chhaaD ..qabool karna ahl e zabaN ke liye mumkin nahiN….

      najayaz hai ya jayaz……ye waqt faisla kar chuka hai……
      ye hota raha hai….ye hota rahe ga..
      main nahen to koei aur sahi……..

  7. अल्फाज़ की शक़्ल बदलने के सन्दर्भ को ले कर की गई ये बहस कीमती हो सकती है – भाषा बहता नीर है और भूगोल तथा बदलते समय के साथ इसके स्वरूप में परिवर्तन आना लाज़मी है – भारत की भाषा नितांत भिन्न होती यदि 1192 का तरायन का युद्ध न हुआ होता या उसके नतीजे भिन्न होते –या अंगेज़ न आये होते –या ….ऐसा न हुआ होता वैसा न हुआ होता।
    हम आज 2013 के कालखण्ड को जी रहे हैं –इसमें लफ्ज़ पत्रिका ने तुफैल साहब ने – भाषा की कतिपय प्राथमिकताओं को ले कर पिछले 14 बरस का सफर तय किया है यह प्राथमिकता भाषा के सर्वग्राह्य और निर्दोष स्वरूप की पैरवी करती है ––यह सफर स्वीकार्य और प्रशंसित रहा है और इसलिये लफ़्ज़ का आज इतना सम्मान है – भाषा सम्बन्धी किसी भी नये विचार को स्वीकार किया जा सकता है यदि वह सर्वमान्य और सर्वग्राह्य न भी हो लेकिन अधिकाँश लोगों को स्वीकार हो। इस बहस ने एक विचार दिया है जिसका मुस्तकबिल तो समय तय करेगा लेकिन अल्फाज़ की शक़्ल पर की गई बहस एक दूसरे की शक्ल पर बहस न करें इसका ध्यान रखना ज़रूरी है। कभी कभी कोई एक विचार जिसका समय आ गया होता है पुरानी तमाम मानयताओं को खारिज कर देता क्योंकि उसमे खुद को स्वीकार कराने की शक्ति होती है।
    बहुत से साहित्यिक ग्रुप इस परिवर्तन को स्वीकर भी कर सकते हैं लेकिन लफ़्ज़ ने अपनी मान्यता और मूल्यों के दायरे में इस बहस पर अपने विचार रखे हैं उमीद है कि इस बहस के बाद एक दूसरे का सम्मान बढेगा। इस पूरे प्रकरण को मैं दादा की भाषा और विनम्रता के लिये याद रखूँगा –विद्वता तो उनकी पहचान है ही। अदबी बहस कैसे की जाती है यह उनसे इस पोस्ट के हवाले से सीखना चाहिये –मयंक

  8. /// कई लफ़्ज़ जैसे नदी/नद्दी, मिर्च /मिरच, तर्ह/तरह बरते,बोले जाते हैं। इन अल्फ़ाज़ को हम चलन में नहीं लाते। एक पुराना मक़ूला है ‘ग़लत-उल-अवाम फ़सीह कुन’. जब अवाम ग़लत बोलने लगते हैं तो वो चलन फ़सीह यानी राइज/जायज़ हो जाता है। ///

    आदरणीय तुफ़ैल साहिब,
    जब यही तर्क हूबहू इन्हीं शब्दों में “अलविदा” और “शहर” “मना” के लिए प्रस्तुत किया जाता है तो असतिज़ा खारिज़ क्यों कर देते हैं ?

    आप ही कहें अवाम के बीच क्या चलन फ़सीह यानी राइज है ?

    अल्विदाअ या अलविदा ???
    शह्र या शहर ???
    मन्अ या मना ???

    • मैं तो मामूली शायर हूँ साहबज़ादे, असतिज़ा से ही दर्याफ़्त फ़र्माइये

      • आदरणीय
        इसलिए तो आपसे पूछ रहा हूँ ….
        पिछले चर्चा के दौरान जो बातें और जो तर्क प्रस्तुत हुए थे उसके बाद इस चर्चा में आए तर्कों ने मुझे बेहद हैरान किया है क्योकि मुझे लगता है कि हमेशा सामने वाले को चित्त करने के लिए ही तर्क न तलाशे जाएँ, हमेशा अपनी सोच पर ही “स्टैंड” लिया जाये और फिर उससे पीछे न हटा जाये ….
        ऐसा न करने पर और क्योकि केवल बात करने के लिए बात की जाए तो खुद की बात खुद ही कटने लगती है

        गुस्ताखी की मुआफ़ी के साथ ….

    • मैं ज़ाती तौर पर ख़ाहिशमंद था कि अब इस बात पर और बात न चले। बहरहाल आपने मुझ पर ज़िम्मेदारी रखी है तो अपनी, केवल अपनी बात रख रहा हूँ। लफ़्ज़ की साख्त से छेड़छाड़ और इमले में बदलाव में फ़र्क़ है। किसी भी लफ़्ज़ के इमले में फ़र्क़ किये जा सकते हैं बल्कि होते रहे हैं। मगर वही फ़र्क़ तलफ़्फ़ुज़ में भी आयेगा। ये ठीक हुआ या ग़लत इसे ख़वास और अवाम का बरताव तय करेगा। शहर, मना, विदा का चलन एक तय होना चाहिये, मेरे ख़याल से तय है भी। अभी शह्र 2+1, मन्अ 2+1, विदाअ 1+2+1 वज़्न के हवाले से चलन में है। कोई बड़ा ज़बांदां इनके सिवा कोई और चलन किसी मुअतबर किताब की शक्ल में बरते। बहस हो और बड़े पैमाने पर इन्हें दूसरी तरह से बरता जाये तो दूसरा चलन राइज हो पायेगा। मगर लोग तब क्या पुराना ही तौर ठीक था बहस नहीं करेंगे ? तब क्या दूसरे अल्फ़ाज़ के चलन पर बहस नहीं होगी। इन अल्फ़ाज़ के पहले चलन ने कौन सी बड़ी शायरी रोकी है ? किस बड़े शायर का हाथ तंग हुआ है ? किस का ताजमहल झोंपड़ा बन कर रह गया है ? ये सब गड़बड़ शायद इस लिये हुई है और होती है कि लोग किसी दूसरे से पूछने में तकल्लुफ़ बरतते हैं। यहाँ एक बात ये भी है कि ज़बान हमेशा सुन कर सीखी जाती है। यानी ज़बान की बुनियाद ही ज़हन में दूसरे डालते हैं। सो पूछगछ होती रहे तो सब ठीक रहेगा। रहा सवाल मेरा तो क़बीले के शायरों के लिये तो वही राइज है जो असातिज़ा ने बरता है

  9. जाफ़री साहब आपसे बराहे-रास्त बात करने से पहले कुछ तारीखी वाक़यात दुहराना चाहूँगा। मगर उससे पहले कुछ ज़ुरूरी भूमिका…..
    फ़ुनूने-लतीफ़ा { Fine Arts } की जानिब वही लोग आते हैं जिनमें ख़ुद को ज़ाहिर करने का लपका होता है। जिन लोगों के ज़हन में ख़ुद को अपने लोगों, समाज, तारीख़ में दर्ज कराने की ख़ाहिश होती है। ये हौका कोई छोटी या कमतर चीज़ नहीं है। इन्हीं की वज्ह से दुनिया ख़ूबसूरत बनी है। इन्हीं लोगों ने गुलाब की क़लमें बनायी और रोपी हैं। इन्हीं लोगों ने ताजमहल बनाया है। इन्हीं लोगों ने दुनिया के रंगों को ख़ूबसूरत किया है। इन्हीं लोगों ने चाँद से महबूब को बरतर साबित किया है। यही लोग दुनिया को वो आँख देते हैं जिसकी राह से दुनिया अपनी बिसात से कहीं जियादा बेहतर लगती , बनती है। यही लोग सपनों को सुन्दर बनाते हैं। यही लोग कालीदास, भवभूति, उमर खैयाम,शेक्सपियर,टॉलस्टॉय, चेख़व, ग़ालिब, अनीस,रवीन्द्र नाथ ठाकुर बने। ये बहुत बड़े लोग हैं।

    तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है
    तेरे आगे चाँद पुराना लगता है ‘कैफ़’ भोपाली

    मगर ख़ुद को ज़ाहिर करने के तरीक़ों में अपने काम से अपना क़द बुलंद करने के सिवा दूसरों का क़द घटाना भी होता है। अब कुछ ऐतिहासिक बदमुआशियां……..

    बोरिस पास्तरनाक जिन्हें डॉ. ज़िवागो के लिये नोबल पुरुस्कार मिला पर वी. सेमीचास्तनी की आलोचना के जुमले देखिये।’वो एक सुअर की तरह है जो उसी जगह को गन्दा करता है जहाँ खाता और सोता है’

    प्रसिद्ध फ़्रेंच उपन्यासकार एमिल जोला पर अलफ़ोंसे का वाक्य देखिये ‘यदि मैं लिखूं तो जोला को केवल यह सुझाव दूंगा कि अब उसका वंश पूरा हो चुका है और वह वृक्ष की सबसे ऊँची शाखा से लटक कर फांसी लगा सकता है’

    जान कीट्स के लिये कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की मैगज़ीन में लिखा गया जुमला देखिये ‘वो प्रतिभा शून्य हैं और कदाचित अपनी मृत्यु तक वे ऐसे ही रहेंगे’

    टॉलस्टॉय को अपनी ज़िन्दगी की शाम में अपने बारे में कई बार ये पढ़ना पड़ा था कि वो विक्षिप्त और पागल हो गये हैं

    बायरन को एडिनबर्ग रिव्यू ने ये सलाह दी थी ‘ वे तुरंत कविता लिखना छोड़ दें, ये उनके बस की बात नहीं है’

    थामस हार्डी की कहानी ‘ जूड ‘ पर एक आलोचक लिखता है ‘ इसको पढ़ने के बाद उसे इतनी घुटन महसूस हुई कि ताज़ा हवा आने के लिये खिड़कियाँ खोलना ज़ुरूरी हो गया ‘

    अब्राहिम लिंकन के मशहूरे-ज़माना जुमले ….. ऑफ़ दी पीपुल ..बाई दी पीपुल …फ़ॉर दी पीपुल पर पेट्रियोट में हैरिसबर्ग लिखते है ‘राष्ट्रपति ने बिना बुद्धि के काम किया है … उनके मूर्खतापूर्ण कथन को जाने दीजिये’ शिकागो टाइम्स इसी पर लिखता है ‘राष्ट्रपति के साधारण और बेवकूफ़ी से भरे वाक्य के कारण हर अमरीकी अपने गाल शर्म से लाल होते पा रहा है’

    अमरीकी अख़बार’बोस्टन ग्लोब’ एच.डब्लू.लोंग्फ़ेलो की आलोचना नहीं करता बल्कि दुःख प्रकट करता है कि वो ‘जंगली आदिवासियों की बेवकूफ़ी भरी दंतकथाओं से बेहतर विषय अपने लिखने के लिए नहीं चुन सके’

    सर सी वी रमण ने जगदीश चन्द्र बोस पर इतनी वाहियाती फैलायी कि 28 नवम्बर 1937 के ‘स्टेट्समैन’ उनकी भर्त्सना की गयी

    जाफ़री साहब यहाँ तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ तो आप क्यों जी छोटा करते हैं। आपकी ग़ज़ल पर आपकी ही ख़ाहिश पर बहस की गयी। आप न चाहते तो ये बात सिरे से ही नहीं उठती। हम सब बच्चे नहीं हैं। ख़ूबियों, ख़ामियों पर भरपूर नज़र रहती है। आज मैं ख़ुद फ़ायदाये, मक़बराये, बेवफ़ाये, आइनाये, सरग़नाये, कर्बलाये, क़ायदाये, हाशियाये, ज़लज़लाये काफ़िये ले कर एक प्रयोगवादी ग़ज़ल पोस्ट करने बैठा तो आपकी ये पोस्ट पढ़ी। ग़ज़ल तो फाड़ कर फेंक ही दी, तकलीफ़ भी हुई कि एक दोस्त से दोस्ती गहरी होने से पहले ही उसको तकलीफ़ पहुँचाने का गुनाह सरज़द हुआ,लड़ायी हो गयी। मैं बिना शर्त इन सब मुबाहिसे में लगे लोगों तरफ़ से, अपनी तरफ़ से मुआफ़ी मांगता हूँ और आपकी जानिब से फ़राख़दिली का तलबगार हूँ। ये अदबी बहस थी। इन बातों को दिल से लगा कर हम कहाँ जायेंगे। यही हमारी दुनिया है। यही हमारे संगी-साथी हैं। मुनव्वर राना के एक शरारती मगर माक़ूल जुमला है। ‘तवायफ़ { उन्होंने इसका और विकट पर्यायवाची इस्तेमाल किया है } दूसरी तवायफ़ से दाद नहीं मांगती मगर बैठती उसी के साथ है। हम सब को साथ रह कर बड़े काम करने हैं। अदब में आपका, अपना नाम दर्ज करना, कराना है। ग़ज़ल के दरबार में उसकी दायीं सफ़ में जगह पानी है।

    ग़ालिब, मीर, फ़िराक़ की सफ़ में दाख़िल होना है
    जी, दरबारे-ग़ज़ल में हमको शामिल होना है

    इतनी उजलत से ये सब कैसे होगा। ग़ुस्सा थूक दीजिये। अब एक दोस्त की फ़ौरी तामील के लिये गुज़ारिश ‘ मुझे लफ़्ज़ के लिये तलबकरदा 50 ग़ज़लों में से कल ही पहली ग़ज़ल यहाँ पोस्ट करने के लिए मेल कीजिये

    दस्त बस्ता

    आपका

    तुफ़ैल चतुर्वेदी

    • Tufail sahib,

      aake is pyaar ke aage kaun hoga jo nahin jhuk jaayegaa

    • आज मैं ख़ुद फ़ायदाये, मक़बराये, बेवफ़ाये, आइनाये, सरग़नाये, कर्बलाये, क़ायदाये, हाशियाये, ज़लज़लाये काफ़िये ले कर एक प्रयोगवादी ग़ज़ल पोस्ट करने बैठा तो आपकी ये पोस्ट पढ़ी। ग़ज़ल तो फाड़ कर फेंक ही दी,

      pehle baadshah salamat ye ghazal sunna chahate hain……..uss ke baad intehaaei mushkil halaat main liyay gaye faislay main radd o badal ke baare main baazabta wazaarati mashwaray ke baad faisla liya ja sakta hai………….hahahahahahah
      _____________________________________________________
      Qibla aap ne ye comment likh ke / aur is lehjay main likh ke…………….mujhay bharpoor sharminda hone ka JO mooqa muyassar rakha hai…..wo mujhay aur bhi sharminda kiyay ja raha hai…..
      yaqeen maaniyay……mujhay kisi ne kaha ke tufail bhai ne aesa kuch likha hai…to main is taraf aaya…wagarna !!!!!

      Kher
      aap bulaayeN hum na aayeN aese to halaaaat naheen
      aik zara sa dil toota hai aur to koei baat naheen….

      kaha suna maaf…..main bhi dil se maazrat kha houn….

      lekan aik vaada..
      agla tarahi misra mera suggested ho ga….
      wo bhi zafar iqbal ka…………….hahahahahaha
      OK ???

      again forum ke tamam ahbaab se maazrat…..ke main ne khaam kha islaah ka thaikay ke tender bhar diyay the…hahahah
      aur waada ke main kisi ki post pe kisi bhi tarah ka achcha ya bura comment naheen karne ka…tashakkur….
      aaj mere bete ka birthday hai so……………jashn ka samay hai…
      aap sab ko mubarak……….aur mujhay bhi
      dua keejyay ke lafz ki ye doalat e nayaab ye warasat ausse bhi muntaqil ho………………….shaukriya

      love u hamisha….

      • चलिये आप के ही पोस्ट किये शेर का सानी मिसरा रख लेते हैं। मगर ये मिसरा बकरा ज़ोर लगता है,फूहड़ है इस लिये ज़मीन वही रखते हुए मिसरा बदल कर ‘ दरिया बहता जाता है ‘ किये लेते हैं। बताइये कि ठीक है या कोई और मिसरा ज़हन में हो तो बराहे-करम फ़ोन पर बात कर लीजिये। ज़मीन में कितनी वुसअत है, देख कर रख लेंगे

        • KAMAAL HAI ITNI BEHAS KE BAWAJOOD AAP ABHI zafar ke bare PE HI FOCUS KIYAY HUWE HAIN….
          Zafar ke baaqi shairi bhi padhyay….

          kher

          ZAFAR KA YE SHARE TRY KAREN
          BETAHAASHA IMKAANAAT HAIN……

          Ghazal kal post karta houn..

          WAHI PASEENA PASEENA HOUN RAAT DIN KE ZAFAR
          HAWA YAHAAN MERI raftaar KE BARABAR HAI

          bazaar-inkaar-ashjaar-dewaar-inkaar,bemaar etc

          zara dekhte hain ladke radeef ki khallaaqiyat ko kitna nibha paate hain..
          bharpoor zarkhaiz zameen hai..

  10. कीजिये हाय हाये क्यूँ

  11. LAFZ KE TAMAM DOSTOUN KA BOHAT BOHAT SHUKRIYA……
    TAH E DIL SE…

    MAIN NE APNE THODE SE SAFAR MAIN HI YAHAAN BOHAT SI MOHABBATAIN AUR SHAFQATAIN BATOOREN…………..KHOOB DAAD SAMBHAALI…
    HAMIASHA KHUD KO MEHFOOZ PAAYA YAHAAN…..
    BOHAT ACHCHI AUR BETAHAASHA IMKANAAT KI SHAIRI PADHNE KO MILI..
    MAIN NE LAFZ PAR AANE KE BAAD QAREEB DARJANOUN MAHAAFIL MAIN LAFZ KI KHIDMAAT KA BABANG E DOHAL AETARAAF KIYA..
    AAP APNE MISSION PAR QAYAM O DAYAM RAHEN……….

    HAMAISHA HAMAISHA HAMAISHA….
    DOSTOUN NE BELOS COMMENTS KIYAY MERI TARAHI GHAZLOUN PAR……….ALLWAYS TAREEF HI KI….

    LEKAN IS AIK GHAZAL KE WAJAH SE MAIN NE AIK GER-ZAROORI BEHAS KO JANAM DIYA……………IS KA AFSOOS HAI…
    ————————————————————-

    IS SAB KE BAWAJOOD MUJHAY LAGA KE AAP KE APNA KUCH AHAM AUR KHAAS ASOOL O QAWAYAD HAIN…..JIN KA MUJHAY AHTARAAM KARNA HO GA….

    LEKAN MAIN TANQEED MAIN BHI THODA BUHAT KAAM KAR CHUKA HOUN…SO MUJH SE SIRF IS LIYAY WAH WAH WAH WAH WAH NAHEEN HO PA RAHI YAHAAN KE…BAQOOL AAP SAB KE HUM YAHAAN AIK DOOSRE KA HOSLA HI BADHANE KE LIYAY AAYE HAIN…..
    ———————————————-

    SO…MAIN KUCH ROOZ SE SUFFOCATED FEEL KAR RAHA HOUN…
    MUJH SE HOON/HAAN/CHUN/CHRAN WALE COMMENT NAHEEN HO PA RAHE…..TAREEF KARNE SE MAIN HICHAKTA NAHEEN….BARBAS WAH NIKAL JAATI HAI…..YUN HI KABHI KABHI MAIN ZAKHM PAR UNGLI BHI RAKH DETA HOUN…….YAHAAN SAB MUJHAY AIK KHAAS CALCULATED DAIRAY MAIN GHOOMTE NAZAR AA RAHE HAIN…..AIK HI TARAH KI BAAT SABHI KAR RAHE HAIN LEHJA AUR LAFZ BADAL BADAL KAR….
    MAIN ZARA THAGA THAGA MEHSOOS KARNE LAGA HOUN..
    AUR AESI MAIN MAIN DANISTA-NA,DANISTA KUCH LOGOUN KA DIL BHI DUKHA RAHA HOUN SHAYAD……………

    YE SAB AAP KE SHAYAAN E SHAAN NAHEEN HAI SHAYAD..
    IS LIYAY………………

    KHUDA HAFIZ:
    KAHA SUNA MAAF…………
    (yun bhi khalis adabi sanjeeda behas main jab asal mudda pas e pusht chala jata hai…aur 3rd greded egos saamne aa jati hain…log apni baat ko apnay kahe ko…bachane lag jaatay hain……aik dojay ke logic reason daleel ka ahtaraam naheen karte hain to..behas apna mudda kho deti hai…….wo yahaan ho chuka hai)

    is liyay
    MUJHAY NA SIRF YE KE IS AHAM BEHAS SE ALAG SAMJHA JAAYE…BALKE FORUM SE BHI BAHAR TASAVVOUR KIYA JAAYA…

    BAQI LAFZ MUJHAY BY POST DELIVER HO RAHA HAI…..JAB TAK SUBSCRIPTION HAI…..WAHAAN PADHTA RAHOUN GA AAP SAB KO…
    SHUKRIYA……………

    COMMENTS LIKHTE WAQT BAARHA MAIN TALAKH SABIT HUWA HOUN…..WO TALKHI WAHEEN TAK……….

    KISI KA BHI DIL DUKHA HO TO MAAFI………SHAB BAKHER..
    BAQI MERA PH NUMBER AAP SAB KE PASS HAI….EMAIL ID BHI RAKH LAIN….yahaan se bahar baat hoti rahe gi….

    liaqatj@gmail.com
    —————————————————

  12. बात बिलकुल शुरूअ से …..लियाक़त जाफ़री साहब ने अपनी तरही-6 की ग़ज़ल मुझे मेल की। ये ग़ज़ल इस तरही की पहली ग़ज़ल थी। मैंने उन्हें फ़ोन किया और इसकी अपनी नज़र के हवाले से ग़लतियाँ बतायीं। उन्होंने इसरार किया तो मैंने ग़ज़ल पोस्ट तो कर दी मगर इस पर किसी ने कुछ कहा तो ज़िम्मेदारी उनकी ही होगी, कह कर पल्ला झाड़ लिया। उनका कहना था कि आप किसी को न तो आमादा करेंगे, न बहस शुरूअ करें। इसे क्या कहूँ कि स्वप्निल आतिश ने मुझसे ही सवाल किया तो मुझे अपनी सोच बतानी पड़ी।ये ग़ज़ल मेरी पसंदीदा या नापसंदीदा नहीं है। यहाँ पोस्ट होने वाली गज़लें सिर्फ़ मेरी ही नज़र का काम नहीं होतीं।

    अरबी लोगों ने ख़ुद को बरतर बताया और दूसरों को अजमी तो ये सिर्फ़ गाल बजाना था। अरबी का अदब सिर्फ़ क़सीदे पर मबनी है। विश्व साहित्य में न वो तब बड़ा था न अब बड़ा है। रहा सवाल क़ुरआन के तर्जुमों का तो इस बात को बेहतर है बहस का मुददआ न बनाया जाये। इस्लामी झगड़े ग़लत तर्जुमों की वज्ह से नहीं हैं। वो वबाल अपनी समझ को सहीह तथा ख़ुदाई और दूसरों को जाहिल और वाजिबुल-क़त्ल समझने के कारण है। ऐसा मानने वालों को ही कठमुल्ला कहा जाता है। कठमुल्ला हरम को सहीह और दैर को मिस्मार करने की सोच रखने वाले को कहते हैं। ये छींटाकशी की शक्ल में तो हमेशा से ही रही है। आपमें से किसी को मज़ीद जानने की ख़ाहिश हो तो फ़ोन की ज़हमत कीजिये। ये इस महफ़िल के शायाने-शान नहीं है।

    मेरी कोशिश रही है कि यहाँ कुछ भी बात की जाये मगर पासे-अदब क़ायम रहे। यही वज्ह थी कि जाफ़री साहब आपके जुमलों पर कमेंट करने पर शारिक़ को, आपकी शिकायत पर, मयंक से बात कर के ख़मोश कराया और ख़ुद भी उस बच्चे को डांट लगायी। मैं आपके कमेंट से इत्तफ़ाक़ नहीं रखता मगर मेरे छोटे आपके मुंह कम-अज़-कम मेरी मौजूदगी में नहीं लग सकते। मगर इस बात का ध्यान लियाक़त साहब आपको भी रखना चाहिये। आप दूसरों की ग़ज़लों पर मशवरा देना अपना हक़ समझते हैं तो हज़रत दूसरों को भी कलाम का, सवाल पूछने का हक़ है। फिर ये बहस तो आपने ख़ुद ही चाही थी। मैं तो इसे बिलकुल शुरूअ में ही ख़त्म करन चाहता था। आपकी जानकारी में शायद ये इज़ाफ़ा होगा कि नवीन ब्रज भाषा के छंदों पर काम करने वालों की सफ़ का बड़ा नाम है। अरूज़ और उर्दू बहर के सिलसिले में भी उनका नाम मुअतबर लोगों में शुमार है। फिर कम-अज़-कम आपको बहर के सिलसिले में तो बहस नहीं ही करनी चाहिये। ये इस लिये कह रहा हूँ की आप ख़ुद जानते हैं कि आप इस मैदान में नाजानकार हैं।

    ज़बान हमेशा सुन कर सीखी जाती है। ये सारे लोग जिस इलाक़े से हैं वहां जिसे लोग उर्दू-हिंदी कहते हैं बोली जाती है। ये ज़बान मां के दूध के साथ इनके बदन में दाख़िल हुई है। ज़हन का हिस्सा बनी है। मुहावरे, ज़बानो-बयान की रवानी इनकी घुट्टी में है। ये सब बस इस चीज़ को शेरी जामा पहनाने में लगे हैं। इन सब की तरही ग़ज़लों का मवाज़ना कर लीजिये, सच्चाई ख़ुद-ब-ख़ुद सामने आ जायेगी। बेहतर हो हमारी गुफ़्तगू उसी विषय पर रहे जिस पर आपने शुरूअ की है। ‘ अलफ़ाज़ का वज़्न शायर ख़ुद तय कर सकता है। जिसका मतलब ये भी है कि हर शायर लफ़्ज़ का वज़्न तय करने के लिए आज़ाद है’

    सो बहस जारी रहेगी मगर ये महफ़िल मुहब्बत वालों की, शाइस्ता लोगों की है, इस बात का ध्यान रखने की गुज़ारिश के साथ

    दस्त-बस्ता

    तुफ़ैल चतुर्वेदी

    • दादा, धर्मेन्द्र भाई का कमेन्ट आप ने पढ़ा होगा – “लफ़्ज़ में कूड़ा कर्कट तो छपता नहीं है”। एक तरफ़ यह हमारे लिये कोम्प्लिमेंट है वहीं दूसरी तरफ़ एक दिशा सूचक कमेन्ट भी है। लफ़्ज़ पत्रिका में तो आप ने पूरी तरह से गुणवत्ता बनाये रखी है, परंतु हम सभी के निवेदन का सम्मान रखते हुये आप ने पोर्टल पर थोड़ी छूट दी। पर अब लगता है कि आप को हमारे निवेदन को दरकिनार करते हुये अपनी आत्मा की आवाज़ सुननी चाहिये।

  13. चूँकि इरशाद भाई ने मुझे यह लिंक भेजा है और कहा िक बहस देखिये, सो मैं आ गया यहाँ… मेरी प्रतिक्रिया निम्न है…

    १) बात चूँकि ग़ज़ल से शुरू हुयी है सो लियाकत साहब मेरी आपत्ति (sirf ek sher par hai) दर्ज करें.
    “एक उजड़ी हुयी सराये हम “
    सराय को सराये , गाय को गाये , होटल को होटेल लिख सकते हैं क्या ?

    २) ये ग़ज़ल/हज़ल स्वप्रस्फुटित और त्वरित प्रतिक्रिया है… सो कृपया हलके में लिया जाए…

    बात बेबात तिलमिलाये लोग
    अपने मन की रटे रटाये लोग
    उफ़ यहाँ भी लड़े लड़ाये लोग
    रात दिन बहस् के सताये लोग

    पहले कीचड़ उछालते हैं फिर
    एक दुसरे की पीठ खुजाये लोग
    सूख कर धूप में कहाँ जाते
    खाली पीली ये चर-चराये लोग

    तोड़ते जान बूझ शब्दों को
    काफिये में न जब समाये लोग
    आइना जब इन्हें दिखाये कोई
    लौट अपने कुएं को जाये लोग

    क्यूँ जुरूरी नतीजे पर आना
    पास मैं फ़ैल तू मचाये लोग

  14. NAVEEN JI ..KSHAMA CHAAHTA HOON
    pehle aise likha jaata tha..jaisa aapne kaha
    waqt ke saath saath..aaj ka roop aa gya..
    kalaantar…ghalat arth men istamaal ho gaya tha
    shukriya….

    • आदरणीय आप बड़े हैं, इस की आवश्यकता नहीं। तथ्यों का आदान-प्रदान ही है बस, और आप ने जो भी लिखा है तमीज़ के दायरे में रह कर ही लिखा है।

  15. NAVEEN JI aap sahih keh rahe hen
    kaalaantar men aise hi likha jaata tha
    jaisa aapne kaha..mujhe maloom he
    lekin aaj ke sandarbh men..shabkosh men bhi
    yun likha ja raha he….lihaaza..waqt ke saath chalna
    shreya skar hota he..aapki muhabbaton ka shukriya

  16. सुबोध लाल जी ..ने कहा की मैंने ..तजुर्बा ..लफ्ज़ पर
    ऐतराज़ किया था..दुरुस्त है …..लेकिन मैंने वहाँ ये भी कहा था
    कि..अगर आप इसे यूँ इस्तेमाल करना चाहें तो कर लीजिये लेकिन
    इस के साथ एक नोट ..दे दीजिये ..कि आपको मालूम है ..कि..
    असली लफ्ज़ ..तज्रुबा है ..लेकिन बोलचाल में तजुर्बा भी इस्तेमाल होता है
    लिहाज़ा ..मैं..इसे ऐसे इस्तेमाल कर रहा हूँ वरना लोग समझेंगे कि
    आपको इस का इल्म नहीं है….
    ……………….
    दूसरी बात ..खँडहर….शब्द है..शब्दकोष में ..खण्डहर..नहीं है
    22 ….और उर्दू में खंडर…12 लिया जाता है

    खँडहर bata रहे हैं इमारत buland thi

    • खण्डहर है कि नहीं इसे मानने या न मानने के लिये इस लिंक पर जा कर देख सकते हैं http://dict.hinkhoj.com/words/meaning-of-%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%B9%E0%A4%B0-in-english.html

      इस के अलावा आप कल्याण, श्री भागवतम, श्रीमदभगवद्गीता या रामायण की या और भी हमारी पुरानी ऐतिहासिक पुस्तकें या टीकाएँ उठा कर देख लें आप को खण्डहर ही मिलेगा……….

      कालांतर में ‘ड’ और ‘ह’ संयुक्ताक्षर हो गये, सहूलियत के चलते इसे स्वीकृति भी मिल गयी…….. पर ऐसा अन्य शब्दों के साथ होने पर ऐतराज होता है ……….

    • Ji qiblah Aadik Saheb: Aap durust farma rahe haiN. Dar-asl ‘tajurba’ tajruba’ ke silsile meN jo hamaare notes exchange hue the uska doosar hissa (yaani aapne jahaan mujhe ye sateek salaah dee ki main ye baat waaze kardooN ke ‘tajurba; jaanboojh kar istemaal kiya gaya hai), yahaaN relevant naheeN tha. Aapke liye bahut izzat mere dil meN barqaraar hai. Aadaab!

  17. सभी के कमेंट्स पढ़े ..जियादा कुछ कहने को नहीं है
    अभी कुछ देर पहले ..लियाक़त जाफरी साहब ने ..नवीन चतुर्वेदी जी से एक सवाल किया ….

    aap filhaal……………..is ghazal ki behar ka naam batain………….
    aur uss behr ki muravvija tarteeb yahaan likhen….ho ba hu..

    1/2/3/4 naheen chale ga….is liyay ke ye khalis urdu ki ghazal hai……

    abhi ke abhi…warna mujhay shak ho jaaye ga aap ki ilmiyatt pe……

    अब वो नवीन भाई के इल्म पर
    जो भी राय रखें ..मुझे उनसे बहर पर एक बात पूछनी है

    उनका एक शेर …

    न कभी घर की सम्त ही लौटे
    और न मंजिल पे पहुँच पाये हम

    का सानी मिसरा..क्या इस बहर पर

    2122121222 पर सहीह है..क्या taqteea
    कर के बताएँगे ……..

    रौशनाये..गदाये…की बात तो अपनी मर्ज़ी की बात है
    उन्होंने इस्तेमाल किया ..उन्हें सहीह लगा …..
    और कोई माने न माने उसकी मर्ज़ी….लेकिन क्या
    लियाकात जाफरी साहब ….
    पहुँच..12 ..को ..21 ..लेना भी इसी कड़ी का सिलसिला है

    ये सिर्फ अपना इल्म बढाने के लिए पूछा है ..आप इसे otherwise
    न लें ….

    • आदरणीय उन के इस के अलावा और भी कई पॉइंट्स हैं जिन का जवाब देना चाहता था मैं; फिर सोचा यहाँ नहीं…. अपने दादा के अज़ीज़ हैं, कभी भी मिलेंगे तब हँस-बोल कर बतिया लेंगे…. क्यूँ हिस्ट्री को रिपीट किया जाये…..

    • आदिक साहब इस बात का मुझे इल्म है कि ये मिसरा नामौज़ूं है। पहुँच को पोंच के वज़्न पर बांधा गया है। मैं इस बात पर भी बात करना चाहता था मगर लियाक़त जाफ़री साहब ने मेल के ज़रिये हुक्म सादिर किया तो मुझे पोस्ट करना पड़ा

  18. जनाब लियाक़त जाफरी साहब, आप न जाने क्यूँ बार-बार यकतरफ़ा कहे जा रहे हैं…………. आप ने अब तक सैंकड़ों अल्फ़ाज़ टाइप कर डाले – सिर्फ़ ‘हाँ’ या ‘ना’ कहने की बजाय……….. भाई आप खुल कर कहो न कि ग़ज़ल के दरवाज़े खोल दिये जाएँ……. सारे नियम क़ायदे ताक पर रख दिये जाएँ….. अमुक सही और बाकी सब ग़लत………. ऐसा तो नहीं होता न भाई, हम चाहते हैं कि आप अपनी बात हम सब से मनवा लें………… बहुतों को आसानी होगी 🙂

    • अब सही दिशा में जा रही है बहस। दरवाजे खोल दिये जायँ और जिसकी जितनी शक्ति हो लूट लूट कर ले जाये। नियम थोपे न जायँ। जितना निबाहना जिसके बस में हो वो उतना निभा ले। 🙂

      • धरम प्रा जी हम दौनों छंद और ग़ज़ल की ख़िदमत साथ करते रहे हैं, एक दूसरे की राय जानते हैं….. यहाँ भाईजान को शॉर्ट में हाँ या ना में अपनी बात कहनी है

      • पहाड़ पे बादल फूटा तो सब से पहले तुम ही निकल्लोगे पतली गलिनवा से बच्चू…. हम को सब पता है, हाँ नईं तो ………… 🙂

  19. main to kher kis baagh ki mooli houn..
    yahaan zafar iqbal sahab ke inqalaabi tajrubaat ki aad main kiyay gaye mushahidaat ko hawala bana kar unn ka qad ghataanay ki koshish ki gayi hai…ye jaante huwe bhi ke aasmaan e adab par un ka maqaam o martaba kya hai…

    main unn ki bas aik ghazal yahaan paish karta hun jo unhoun ne barsun qabal issi tarah ki aik yaktarfa behas ke jawaab main likhi thi…
    aaj wo ghazal phir dhondh laaya hun…aap bhi sunyay
    ———————
    aur haan ye zaroor bataaeye ke ye aik achchi ghazal hai buri ghazal hai ya bohooooooooot buri ghazal hai…
    aur radeef deekhyay…………..agar is tareeqay se zafar ne kaam karne ka hosla na dikhaaya hota????? to aap ye scene dekh paatay kya???
    is ko kehte hain aafaaqi kaam….hamaisha rehne wala kaam…..
    warna yaheen forum pe hum ne aik tarah misray pe 50 ghazlain likh maareen…………..aap daavay ke sath keh sakte hain kya??? in tamam ghazlun main 4 bhi ashaar aese huwe hain jo is ijtihaadi adab ka hissa hain???
    ——————————–
    MAAFI KE MAIN GOOGLE TRANSLETOR SE HINDI LIKH RAHA HUN ROOMAN MAIN……imlay ki ghalatiyaan avoid karen plz…

    कूचाये खाब मैं जाता हुवा हो सकता हूँ
    यही इलज़ाम उठाता हुवा हो सकता हूँ

    मुझे जाता हुवा समझे हैं अगर दूर से आप
    उसी रफ़्तार से आता हुवा हो सकता हूँ

    मैं बताता हुवा होता हूँ यहाँ पर हर बात
    कुछ न कुछ फिर भी छुपाता हुवा हो सकता हूँ

    एक पर्दा सा गिराता हूँ मगर साथ ही साथ
    कोई मंज़र भी दिखाता हुआ हो सकता हूँ

    फिर किसी चीज़ से बाहर निकल आता हुवा मैं
    और किसी शय मैं समाता हुवा हो सकता हूँ

    फर्क बाक़ी ही नहीं है कोई दोनूं मैं अगर
    कभी रोता कभी गाता हुवा हो सकता हूँ

    दश्त हूँ चारुं तरफ फैला हुवा हूँ अपने
    जिस की मैं ख़ाक उडाता हुवा हो सकता हूँ

    कुछ नहीं और तो इस बागे सुखन मैं कहीं मैं
    गुले इमकान सा खिलाता हुवा हो सकता हूँ

    नज़र आता हूँ बजाहिर जो मैं गुमराह ज़फर
    रास्ता कोई बनाता हुआ हो सकता हूँ
    _______________________

    बाबा लोग….shairi ही रहने वाली है…………….आखिर मैं
    हल्ला हंगामा दो दिन की बात है……उड़न छोह हो जाता है सब कुछ…..ये ऐसा दश्ते इम्कानो ला इमकान है……किसी भी तरह की खुशफ़हमी काम नहीं आने वाली ..

    sorry ab main har comment pe comment naheen karne wala…..khuda hafiz

    • लियाक़त साहब आपके कमेंट का आख़िरी जुमला बिलकुल सहीह है कि शायरी ही रहने वाली है। इसी कोशिश में तो हम सब लगे हैं। ज़फ़र इक़बाल साहब की शायरी अच्छी है मगर उनका सब कुछ बिलकुल अच्छा नहीं है, ये आप भी जानते होंगे। रत्बो-याबिस उनकी ऐसी ही चीजों का नादिर नमूना है। मैं ख़ुद भी उनका मुअतक़िद हूँ। उन्होंने चौंकाने वाले बहुत से काम किये हैं। हिंदुस्तान के लोगों से शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब ने शबख़ून के ज़रीये उनका तअर्रुफ़ कराया था। अब वो इल्म और समझ की उस मंज़िल में हैं जहाँ उन्हें उर्दू का हर ग़ज़लगो अपने से कमतर लगता है। वो बज़ाते-ख़ुद सबके उस्ताद हैं। शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब की जान को भी वो लगे हुए हैं और अब उनका ज़िक्र इस अंदाज़ में करते हैं। फ़ारूक़ी ने किन-किन लोगों पर लिखा है। उसे तनक़ीद की तमीज़ नहीं है। मसअला शायद यही है कि फ़ारूक़ी ने मुझ पर लिखने के बाद क़लम क्यों नहीं तोड़ दी। यही कारण है कि उन्हें पाकिस्तान में बिल्कुल ही माना, पहचाना नहीं जाता। उनकी इज़्ज़त सिर्फ़ हम हिंदुस्तानी ही करते हैं।

      यहाँ एक बात की जानकारी आप तक पहुँचाना ज़ुरूरी लग रहा है। आपसे सवाल करने वालों के क़द को बराहे-करम इस लिये कम न गर्दानिये की वो लोग आपसे मुअददब लहजे में बात कर रहे हैं। नवीन छंद शारत्र के अद्भुत जानकार हैं। अरूज़ पर भी उनकी बहुत अच्छी पकड़ है। इतनी अच्छी कि आप को कोई मुश्किल आये या कुछ समझ न आ रहा हो तो उनसे वो नुकता साफ़ किया जा सकता है। आप चाहें तो आदिक भारती साहब के आपके शेर की बहर पर पूछे गए सवाल को उनसे समझ सकते हैं। इसी तरह सौरभ भारत सरकार के अधिकारिक अनुवादकों में हैं। हिंदी, उर्दू, इंग्लिश तीनों के अदब पर उनकी भी भरपूर नज़र है। कहीं हज़रत अली का क़ौल पढ़ा था कि बहस कर कि इल्म की गिरहें खुलें मगर बेतमीज़ी की गिरहें भी खुलने लगीं ये तो ठीक नहीं है।

  20. “शायर अपनी मन मर्ज़ी के लफ़्ज़ ले कर अपनी मन मर्ज़ी से उन का वज़्न तय कर सकता है”

    लियाक़त भाई, मुद्दे पर भटकने के बजाय मैं ऊपर कही गयी बात पर आप की राय सिर्फ़ एक सेंटेन्स में जानने का उत्सुक हूँ, सिर्फ़ एक सेंटेन्स में। आप के उस सेंटेन्स से मुझे मालूम पड़ जायगा कि इस बहस को अपना समय दूँ या न दूँ।

    • yah sawaal mera bhi hai…

      • hahahahahahha..swapnil……………jeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee

        naveen ka sawaal bhi aap hi ka hai…
        shekhar ji ki baat bhi allready aap ke dil main thi…………

        To phir in bechaaroun ka apna kuch tha bhi ke, aap hi ke dil ki chaan phatak kar rahe the………………..hahahahahahaha

        yaar daro mat khul ke apni baat rakho yahaan…hum to yaar dost hain yahaan..
        ye koei jang thodi hai………lutf lain baatoun ka…
        meri 10 baatain aap thukrain….dus main aap ki………….is main jhagda kahay ka…..main aap se seekhoun aap mujh se……..

        • liaqat sahab aapne shayad mera comment dekha nahi.. saurabh bhai ya naveen bhai se mera sahmat hona theek waisa hi hai jaise meri ek shanka in sab logon kee bhi shanka sabit hui…. saurabh bhai aur naveen ke comments se alag bhi maine kuch kaha hai.. aur haan jhagde jaise koi baat nahi hai… yah sab hota raha hai..hota rahega…

            • haan galat kaise ho ga………………….yaar jo thera….hahahahahahahah

              dekh lo bhai…aap sab aik doosre ki haan main haan milane ke chakkar main…..kaheen nakaar hi na diyay jao….hahahahah

              haan main ne kuch poocha tha aap se…….
              is ghazal ki zameen behr wazn……………aur uss ki khalis taqtee…………..
              ab late ho raha hai……

          • khush raho………….
            aur haan jald sehmat mat ho jaaya karo……………

            agar hamare maamlay main itni asehmati ka hosla kiyay ho to hamain kaheen aur bhi ye hosla dikhna chahiyay……..warna aadmi ki qaabiliyat pe shak ho jaata hai

    • naveen ji………………….

      shairi ko seekhyay………..aagay bhadyay…..apne aql o shaoor ko qayad banaeyay, tafheem o tabeer ke nayay elaqay daryaaft keejyay……..ye athaa gehra aur phaila sumandar hai…….
      aap apne naam main shamil lafz NAVEEN ko saarthak keejyay……
      PURANAY pe mat adyay….
      ye aik adad zindagi bohat kam hai kuch bhi seekhne aur talaahnay ke liyay…………

      main aap ke sawaal ka jawaab doun ga lekan talakh ho jaaye ga….
      aap filhaal……………..is ghazal ki behar ka naam batain………….
      aur uss behr ki muravvija tarteeb yahaan likhen….ho ba hu..

      1/2/3/4 naheen chale ga….is liyay ke ye khalis urdu ki ghazal hai……

      abhi ke abhi…warna mujhay shak ho jaaye ga aap ki ilmiyatt pe…….

      • आप ने कभी वक़्त निकाला होता इस नाचीज़ के लिए तो बह्र का नाम पूछने की नौबत न आती, ख़ैर अब देख लें – http://thalebaithe.blogspot.in/

        यदि आप चाहते हैं कि मैं आप की बातों में दिलचस्पी लूँ तो आप मेरे पूछे गए सवाल का एक सेंटेन्स में ज़वाब देने की मेहरबानी करें।

      • चलो बता देता हूँ,

        बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून
        फाएलातुन मुफ़ाएलुन फालुन
        2122 1212 22

        अब ये खफीफ़ क्यूँ है? मुसद्दस क्यूँ है? और लास्ट में मख्बून क्यूँ लगाया? ये सब तो आप नहीं न पूछना चाहते?

        मैं भी यारी-दोस्ती समझ कर ही बात कर रहा हूँ, पर आप ने ज़वाब देना चाहिए था हाहाहाहाहाहा

        • 21-22 ne hi saara kaam kharaab kiya huwa hai aap sab ka……………..

          taqtee kar ke dikhaayen yahaan….ye urdu ki ghazal hai khalis urdu ki….

          baaqi aap ki uljhan samajh sakta houn……..is jhamailay main aap jaise na idhar ke reh paatay hain na udhar ke,……….

          aap ne apni aqal se kaam liya naheen….kisi ne kuch keh diya…aap lag gayay usse defend karne….bagher ye sooche ke shairi karne wala behtar jaanta hai ke uss ne ashaar kyon likhe hain………..

          aap ka moaqqaf wahi ho ga jo tufail sahab ka ho ga…..
          lekan tufail sahab ka to apna moaaqif hai….khalis apna…….nijji zaati..

          aap ka kahaan hai????

          • भाई जान परेशान क्यूँ हो रहे हैं, जब चाहेंगे तब आमने-सामने बैठ के एक दूसरे के इल्म की इज्ज़त कर लेंगे। फ़िलहाल तो मुद्दे पर आओ और मेरी बात का ज़वाब दो 🙂 हाँ या ना में ………… बस्स

    • जी हाँ नवीन भाई शायर ऐसा कर सकता है। शायर की कनपटी पे बंदूक रखकर शाइरी नहीं करवाई जाती। अब आपको ये हक है कि आप उसे पढ़ें या न पढ़ें।

      दादा की ये बात “इन्तिहाये, आशनाये, गदाये,मलगिजाये कोई लफ़्ज़ नहीं हैं। ये इस तरह है कि इस ज़मीन में ‘घबराये’ वज़्न के कारण नहीं आ सकता।” और ऐसा समझने के बावजूद लफ़्ज पर जनाब लिक़ायत साहब की ग़ज़ल का प्रकाशन मेल नहीं खाते। बात सीधी सी है कि दादा को इसमें कुछ तो अच्छा लगा होगा जिस वजह से इसका प्रकाशन यहाँ हुआ। कूड़ा कचरा तो लफ़्ज पर नहीं प्रकाशित होता न।

      मुझे तो लिक़ायत साहब के प्रयोग अच्छे लगे। “बतियाये” “गरियाये” शब्दों का प्रयोग अवधी में आम होने से जब कहीं आता है तो मुझे अच्छा लगता है। मुझे “रौशनाये” शब्द विशेषरूप से अच्छा लगा।

      दादा इस बात की सनद देते हैं “अब इस अमर कविता की किताब, श्री लाल शुक्ल के अनुसार ‘ अगर सरकारी ख़रीद न हो तो फ़ौरन मर जाये।” इस पर मै कहूँगा कि दीवान भी कितनों के जिंदा हैं। हर भाषा के साहित्य का यही हाल है। जो लिखा जाता है उसमें से बहुत कम जिंदा रहता है वरना नये लोगों को साँस लेने के लिए हवा भी नसीब न हो। कौन जियेगा इसे समय ही तय कर सकता है अदब नहीं। लिखने दीजिए जो कुछ भी लिखा जा रहा है पढ़ने वालों को अच्छा लगेगा तो जियेगा वरना अपनी तमाब अदबियत के बावजूद मर जाएगा।

      एक बात और है कि जैसे जैसे हम पढ़ते लिखते जाते हैं, ज्ञान प्राप्त करते जाते हैं, दूसरे हमें मक्खी मच्छर लगने लगते हैं जबकि होना इसका ठीक उल्टा चाहिए। मेरा एक मत्ला भी है इस पर

      वो झाड़ें तो विद्वत्ता
      हम झाड़ें तो है लत्ता

      अंत में एक मत्ला और हुआ है इस बहस को पढ़कर। पेश है।

      था केवल चुल्लू भर पानी
      डूब मरे सब ज्ञानी ध्यानी

      • इस का मतलब अब आप तो ऐतराज करने वालों की फेहरिस्त से हट गये, जब शायर को शब्द की छूट दे दी तो फिर तो तसव्वुर वग़ैरह के लिये तो राहें पहले से ही खुली हुई हैं 🙂

        • मैं तो बारिश का खुले दिल से स्वागत करता हूँ। इस बात से नहीं डरता कि मेरा घर गिर जाएगा। इतना कमजोर घर है तो एक न दिन गिर ही जाएगा पर बारिश से कितने सारे और लोगों का भला भी होगा। मगर इसका मतलब ये नहीं कि मैं ठंढ में बारिश में नहाऊँ और निमोनिया का शिकार हो जाऊँ। 🙂

  21. हर भाषा का व्याकरण अलग होता है.. अंग्रेजी के हवाले से हिंदी और उर्दू में किये गए हर प्रयोग को सहीह नहीं ठहराया जा सकता. यह बहुत सीधी सी बात है.. सराए और हाए-हाए पे मेरा मत वही है… कि अगर इसे सहीह कहा जा सकता है तो शहर ज़हर सुबह जैसे अल्फाज़ भी सहीह माने जाने चाहिए…. खुद्दार फिल्म का एक गीत है.. ‘अंग्रेजी में कहते हैं कि आय लव यू’… इसमें कुछ मिसरे यूं है..

    हम तुमपे इतना डाइंग
    जितना आकाश में पंछी फ़्लाइंग
    सी (समुद्र) में पानी लाइंग
    भंवरा बगियन में फ़्लाइंग

    साफ़ ज़ाहिर है कि यह प्रयोग चौकाने के लिए और नए तरह के काफिये मिलाने के लिए किया गया है.. माज़रत के साथ कहना चाहता हूँ कि लिआक़त साहब की ग़ज़ल में इस्तेमाल किये गए काफिये भी मुझे कुछ ऐसे ही लगे… गीला गीला पानी.. अगर इसे सनद माना जा रहा है तो एक उदाहरण और है मेरे पास.. दिल्ली में हर महीने एक काव्य गोष्ठी ‘डायलाग’ होती है जब तक मैं दिल्ली में था इसका हिस्सा था.. इसमें हिंदी के एक प्रतिष्ठित कवि नें इसी में गोष्ठी में ‘जल’ पर एक कविता सुनाई जिसमें एक मिसरा यूँ था कि ‘जल हाइड्रोजन के दो परमाणुओ और ऑक्सीजन के एक परमाणु से बना होता है’…हमें पता है कि पानी गीला ही होता है.. और गुलज़ार साहब नें सिर्फ और सिर्फ… गीला गीला पानी का प्रयोग ‘पानी रसीला पानी’ के साथ तुक बैठाने के लिए किया है.. ज़फर इकबाल साहब के मजमुए में अगर ऐसे अश’आर है जो दादा नें कोट किये हैं तो मुझे इस बात में संशय है कि मैं उनकी किसी भी बात को सनद मान सकूंगा…

    • swapnil…………………..

      itne achche shayr ho bhai…………..Mantiq seekho…….
      zafar ke jo ashaar tufail bhai ne quote kiyay hain…………….?????
      unn se man maila mat karo………….main ne uss se waahiyaat ashaar apne comment main zafar sahab ke quote kiyay hain…..wo bhi padh lo…..kaise mumkin hai ke aik itna khallaq shayar aese share likhe aur phir unn ko apni kitaaboun main bhi rakhe??? kuch to chakkar ho ga na?????

      aur samajh lo……………….ke ye sab tajrubay…aik khaas adabi dayanat-dari ke paish e nazar kiyay gayay the…..jin ki aik ukammal tareekhi haisiyat hai….
      aap tab paida bhi naheen huwe the jab ke ye maarkay hain….(maarka aik urdu ka lafz hai)..

      zafar ki kulliyaat 4 jildoun main hai…………….har jild 1200/1500 page ki hai…
      yaani kul qareeb 6000 pages……………..

      ab soch lo aik page pe kitni ghazlain aati hain….aur hisaab karo…zafar ne kitna likha hai……………????
      aur kyaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa kya tajrubay kiyay houn ge…

      Aap tifl e maktab hain bas itna samajh lo ke urdu ke aik buhat bade naaqid ka aik qoal adabi halkoun main gardish kar raha hai……ke zafar ghalib ke baad sab se bada ijtihaadi kaam karne wala poet hai….

      aur aik tanqeed nigaar ye kehte hai ke…….zafar ko aaj se 50 saal baad aese hi padha jaane wala hai jis tarah log aaj ghalib aur mir ko padhte hain………….

      • हिंदुस्तान के लोगों से शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब ने शबख़ून के ज़रीये उनका तअर्रुफ़ कराया था। ये उन्हीं का जुमला था, ये अलग बात कि फ़ारूक़ी साहब इसी क़िस्म की बातें राजेंद्र मनचंदा ‘बानी’, मुईन अनस जैसे कई शायरों के सिलसिले में अलग-अलग वक़्त पर कही हैं। ख़ैर ज़फ़र इक़बाल हमारी बहस का सब्जेक्ट नहीं हैं। बराहे-करम इन दोस्तों की बात का जवाब दें कि क्या शायर को लफ़्ज़ का वज़्न अपने हिसाब से तय करने और लफ़्ज़ों को अपने हिसाब से तोड़ने-फोड़ने की इजाज़त है ?

  22. wah wah wah…
    hum bayabaaN main hain aur ghar main bahaar aayi hai….hahahahah

    Pehli fursat main hi shukriya ke tufail bhai ne aik aham nuqtay par baat ka aaghaaz kiya hai…aur aesa zaroor hote rehna chahiyay..

    dosto: main ne guzri shab hi is behas ko padh liya tha….lekan main ahtiyaatan khud comment se bach raha houn…..
    is liyay naheen ke main behas ka hissa naheen ban-na chahata…..balke is liyay ke kasauti pe meri ghazal hai,so mujhaya ziyaada bat naheen karni chahiyay…is mudday pe bajaaye lan-taraani karne ke meri ghazal hi kafi hai jo mera nazarya bayaan kar rahi hai………..aur agar main ne ye experiment kiya hai to 100% chances hain, balke 200% chances ke main apne likhe ka diffa karoun ga hi karoun ga? to is main naya kya huwa…..???.hai na???….is liyay mera moaqaff yahi thehra ke main ne sirf apne kuch qawaafi ke tajrubaat se 100% muttafiq houn balke mujhay is baat ka garv bhi hai ke ye mere kasheed-karda hain…
    (lekan khuda-ra aap mujhay is style ka moajjid na samjhen, yahi kaam mujh se hazaar darja behtar aur khoobsurat mujh se saaloun pehle bade log kar chuke hain…zafar iqbal to just aik chohti si misaal hai)

    is liyay dosto: main aap ke comments padhne par hi focus karoun ga….
    is waqt jaise aap sab aik hi ratti rataei baat baar baar baar baar kiyay ja rahe hain…..aur behas ko saare ka saare aik khas taraf moad dene main aap ki saansain phool rahi hain…??? to main zara aur wait karoun ga….ke aap mazeed gubaar nikaal lain…(baqi jahaan jahaan mujhay lage ga ke meri baat karne ki surat moajood hai to main zaroor baat karoun ga…..warna kham kha har comment pe,aese main jab ke sab aik se hain….aik hi baat karna waqt ka ziyaan hai..)
    phir agar zaroorat padi to main jawaab bhi doun ga aur with facts and reason……hawa main baat naheen karoun ga…..jaise taqreeban yahaan ho rahi hai….main bas chahata houn ke aik martaba aap sab taqreeban khul ke is mudday pe apni baat rakh lain…
    ________________________________________________

    Sab se aham aur zaroori baat:
    ye sirf aur sirf is forum ke admins ka haq hai ke wo te karen ke yahaan kya baat ki jaaye aur kitni baat ki jaaye aur kis lehjay main baat ki jaaye, aur kis nazaryay ke tehat baat ki jaaye………………………….?????
    agar waqaeei aese rules and reguletions ki yahaan koei qaid hai to main talakh behas se bachoun ga…..haan,agar aesa koei marshal-law yahaaN naheen hai to main khul ke baat karna chahoun ga…

    Aur aik aakhri baat…………aur aham baat..
    na main bada houn na tufail sahab..
    na ye forum harf e aakhir hai na yahaan debate karne waloun ki baat…

    zaban/zubaan………aur fan ki hi chale gi…creativity number one pe hai..

    no agenda/ no school of thought/ no guru-shishye prampra/ no naaray-baazi..

    Zubaan Boli koei si bhi ho……wo is baat ki mohtaaj naheen hai ke insaan uss ko kaise barte ga….na wo hukm saadir karti hai….
    zabaan nirantar behta huwa mooh-zoor darya hai…..na jis pe koei baandh baandhay ja sakte hain na is ko aik talaab bana kar kaheen ikaththa kiya ja sakta hai…
    OXFORD DICTIONARY jaise zinda e javaid idara har saal apni dictionary main hazaar nayay lafz/lehjay/isteaaray/alamatain/panctuations shamil karta ja raha hai…………….Na sirf ye ke shamil karta hai balke har saal Oscar Awards ki tarah is baat ki hoad lagi rehti hai ke koun koun se nayay lafz NAWAZAY ja rahe hain..har mulk har khitta har tehzeeb apne lafzoun ke is aalmi qabooliyat ke jashn ka hissa banti hai….phir chahe india ka guru/pandit sammanit ho ya phir hamare kisi padoosi mulk ka koei maqaami pashto ya saraiki lafz…..
    Ab wo lafz kisi ne pehli martaba sune houn ya na bhi sune houn?? is ki koei ahmiyat naheen reh jaati……………………….yahaan kisi kam-ilm nosakhyay ne filmi aur adabi zubaan ki jawaziyat/adam-jawaziyat ka nuqta bhi bayaan farmaaya hai………..bagher is baat ko jaane huwe ke film art forms ka aik buhat bada medium hai..jo bayak waqt qareeb 10/12 doosri badi art-forms ka samagam hai…..isi liyay gulzar ki baat ki ja rahi hai yahaan majrooh sahir javed akhtar ka hawala diya ja raha hai……………………………..kisi honny-singh ke likhe valgur aur phohad lyrics ko notice naheen kiya ja raha…(aap ko ilm hona chahiyay ke jab baat ki jati hai to uss ka manzar/pas-manzar aur paish-manzar kya hai..)
    _____________________________________________________
    Aur haan, aik aur aham baat………..yahaan par kuch log dhadalle se zubaan bilkhasoos Urdu Zubaan main lafzoun ke sahi aur steek istimaal par apna jhandha le kar nikle hain..
    Unn se AIK MOADABAABA GUZAARISH HAI…………..agar wo directly urdu ka persion script naheen jaante(aur sirre se naheen jaante) wo kam az kam is issue pe tab tak baat na karen…jab tak wo zubaan as its na seekh lain…..kyon ke lafzoun ki/ haroof ki aik shakl surat picture hoti hai…jo maani ke sath travel karti hai………….khuda ra uss ko seekh lain….devnagiri/hindi/pujanbi/rooman se urdu samajh naheen aane wali..
    Is ki aik saamne wali misaal deta houn….Arabi dunya ki aik badi zubaan hai…aur mashhoor hai ke ARAB apne elava baqi sab ko AJAM kehte the……………
    AJAM ki tafseer dictionary main yun hai

    “In Arabic, Ajam (عجم) has one primary meaning: “non-Arab”. Literally it has the meaning “one who is illiterate in language”, “silent”, or “mute”, and refers to non-Arabs in general.”
    _______________________
    Ab aap dekhyay..aesa kyon tha ARAB aesa kyon samajhte the ke baaqi dunya AJAM hai….??
    Is ka jawaab ab 1400 saal baad milna shuru huwa hai…..jab aaj ke dunya ke sab Muslims ne……(jo ARABI as its inherited language) ke aezaaz se faiz-yaab naheen the…………unhoun ne apne apne tareeqay se QURAAN ki tafseer/tarjuma aur tashreeh kar li………………….urdu main persion main english main spainish main french main ya hindi main…… PHIR KYA HUWA??? jis ko politically/belief ke aetbaar se, jaisa suit kiya uss ne QURAAN KI KHAAS ARABIC AAYAT ke wese hi meanings nikaal liyay…………………..aur aaj dunya ka beda garaq kar rakha hai sab ne..
    Saare muslims apni ideology ko sahi sabit kar rahe hain…aur wo bhi bazaabta Quraan se misaalain de de ke……..
    Issi baat ka khof 1400 saal pehle ARAB ke linguists ko tha……isi liyay unhoun ne hosla kar ke baaqi tamam ger-arab dunya ko AJAMM kaha….

    So kehne ka matlab ye ke insaan ko apne ird gird ka sab ilm hona chahiyay…………….
    Ab main aap ko kaise samjhaon….ke ye jo behas aap feb-2013 main kar rahe hain…..Urdu wale 88 ki idhar udhar once for all nipta chuke hain……………….
    _______________________________
    Post Modernism aur Modernism par meri teen adad tanqeedi kitaabain markit main hain………
    unn ka mutaala zaroor karen…
    1: Jadeediyat-ma baad jadeediyat bahawala shaer.
    2: jadeed urdu shairi,Nazm (sheri asnaaf main nayay tajrubay aur mushahiday)
    3: Jadeedyay….Faiz se Zafar Iqbal tak..
    ___________________________
    AAKHIR PE MAAZRAT DIL SE……KE MAIN APNI BAAT RAKHNE MAIN KAHEEN KAHEEN TALAKH HO GAYA……………..Is liyay ke aap main se kuch aik mujhay zubaan/creativity/fan aur vidya ke chahane wale kam…..aur apni socalled zaheen o fiteen moaqaff aur nazaryaat ke banaaaye hawaei der o haram ki hifazat karne wale kath-mulla ziyaada lage………..
    ______________________________________________
    जाफ़री साहब की इस ग़ज़ल में बरते गये ये अल्फ़ाज़ रौशनाये, सराये, इन्तिहाये, आशनाये, गदाये,हाये-हाये, मलगिजाये मेरे नज़दीक ठीक नहीं हैं तो इसका कारण यही है कि मुझे क्या ठीक है और क्या नहीं इसकी तालीम मिली है।

    ye tufail bhai ke yahaan comment kiyay gaye alfaaz ka aik hissa hai..
    unhoun ne maana hai ke unn ke nazdeek theek naheen hain………………………………to buhat achcha…..is se baaqi ke haan bhi theek naheen houn ge? is ki koei gaurantee milti naheen dikh rahi…
    baaqi unn ko kya ghalat hai kya theek hai….baqool un ke is ki taleem mil chuki hai…….so ab ye un ki zimmedaari bhi hai ke wo is taleem par kaarband rahen…

    Mera to ye maamla hai bhai sahab ke hamare aaba o ajdaad main anis/ghalib ka chalan raha hai……aur wo zara leek se hat ke chale hain….so wahi bagyaana pan kuch hum main bhi hai………………..main bhi alkeer ka faqeer ban jata..lekan ho naheen pa raha…………………zafar iqbal type bhi ussi had tak achcha lagte hain jahan wo is kaaei zadda tehre huwe pani main kankar maarte dikhte hain…wagarna unn se bhi kkaei ikhtalafaat hain….(lekan wo sab unn ki tanqeed ko le kar hain)..

    PAS-NAVISHT: (means Note)
    Aur haan yahaan jo bhi koei aap ko mere moaqaff ka diffa karta huwa…ya uss ki haan main haan milaata huwa nazar aaye??? to khuda ra usse mera planted na samjha jaaye…uss ki baat pe gore kiya jaaye…..
    Kyon ke main to apne moaqqaf ka diffa karne se raha…..
    ————————————————————————–
    aik comment main tufail bhai ne mazhar imam sahab ki azad ghazal ki baat rakhi hai….waheen zafar iqbal ki kitab ratboyabus se kuch ashaar dhondh dhondh ke quote kiyay hain……unn ke zimn main aik baat..

    tufail bhai zafar ki ibtidaayi kutub se aese 500 ashaar nikaal ke doun ga……lekan filhaal aik aur sunyay..
    BAKRI MAIN MAIN KARTI HAI
    BAKRA ZOR LAGATA GAi.
    aik aur sunyay

    BATTI JALA KE DEKH LE SAB KUCH YAHEEN PE HAI
    SALWAAR MERE NEECHE HAI BANYAAN USS TARAF
    Aur aese hi darjan bhar aur bhi…
    ——————————————————————
    chalyay ab AAKHIR main Zafar sahab ke kuch aur share padhte jaatay hain…..ta ke aik khushgawaar mahool main ye comment nipat jaaye…wah wah wah beshak mat keejyay ga….hahahahah

    Tanha ye baar e khaab authana pada mujhay..
    Phir apne baad aap hi aana pada mujhay..
    aakhir ko sirf aik tamasha tha mere pass.
    aur wo bhi baar baar dikhana pada mujhay..
    khalqat bila sabab hi paraishaaN tha is qadar
    main kuch naheen houn sab ko batana pada mujhay.

    Ae zafar wo yaar kaisa tha ke uss ke nain-naqsh
    khoon main shamil the aankhoun ke liyay nayaab the

    imarat ye mukammal hone wali hi naheen lagti
    ke is tameer main kuch rang e mismari ziyaada hai
    chale ga kis tarah se karo baare shoq is surat
    rasad kuch bhi naheen hai aur talabgaari ziyaada hai
    suraag uss ka kaheen andar to kuch milta naheen beshak
    ye halat wo hai jo hum par abhi taari ziyaada hai..
    HIFAZAT HI HAMARA MASALLA THA ROOZ E AWWAL SE
    SO APNE IRD GIRD AB CHAAR-DIWAARI ZIYAADA HAI

    lafz……..zindabad

    ######################## E N D ###########################

  23. जाफरी साहब के हवाले से एक बहुत ज़रूरी बहस का शुभारम्भ हुआ है।जाफरी साहब ने अपनी ग़ज़ल में कुछ ऐसे लफ़्ज़ों का इस्तेमाल किया,जिससे हम सब को थोड़ी हैरत हुई।बाद में अपनी टिपण्णी में उन्होंने विस्तार से इनका औचित्य सिद्ध किया।बहरहाल,कई सवाल अपनी जगह बने हुए हैं।सबसे पहले तो जाफरी साहब ने ‘शब् खून’ में ज़फर इकबाल साहब के जिस लेख का हवाला दिया है,उसमे यह ज़रूर कहा गया है कि शायर को लफ़्ज़ों को अपने अनुरूप बरतने की छूट होनी चाहिए,और वह होती भी है,मगर यह कहीं नहीं कहा गया कि उसे धड़ल्ले से नए लफ्ज़ ईज़ाद करने और पुराने लफ़्ज़ों को तोड़ने -मदोड़ने की भी छूट है।जबकि,अपनी खुद की एक टिपण्णी में जाफरी साहब स्वीकार करते हैं कि ये लफ्ज़ खुद उनके लिए नए हैं।साफ़ है कि ज़फर इकबाल साहब का उक्त बयान एक व्यापक सन्दर्भ में है।इसकी अलग से व्याख्या हो सकती है।इसी क्रम में सुबोध लाल साहब का यह तर्क कि इस प्रकार के इस्तेमाल से ‘लफ़्ज़ों की बचत’ होती है,मेरे समझ से परे हैं।मान लीजिये कि यदि हर दूसरा लेखक अपनी सुविधानुसार इसी प्रकार ‘लफ़्ज़ों की बचत’ किये चला जाये तो भाषा की क्या गति होगी और पाठक पर क्या गुजरेगी?अंग्रेजी के जो उदाहरण उन्होंने यहाँ प्रस्तुत किये हैं,वे किसी लेखक की ईज़ाद नहीं है।व्याकरण के सुस्थापित नियमों के तहत किये गए प्रयोग हैं।ठीक है कि जीवंत भाषाएं नए शब्द,मुहावरे गढ़ती और उन्हें अपने आप में समाहित करती चलती हैं,किन्तु ऐसा वैज्ञानिक सिद्धांतों के तहत भाषाविदों द्वारा किया जाता है न कि लेखको की सहूलियतों के अनुसार।अंग्रेजी साहित्य में ‘Poetic License’ और यहाँ तक की नए शब्दों के ‘coinage’ की अवधारणा भी है।शेक्सपीअर ने अपने नाटक ‘जुलियस सीजर’ में एक स्थान पर ‘Most Unkindest’ लिखा है।एक तीसरी कक्षा का छात्र भी जानता है कि अंग्रेजी में दो सुपरलेटिव एक साथ प्रयोग नहीं किया जा सकता।किन्तु ये ‘Rare of the Rarest’ इस्तेमाल होने वाला ‘Poetic License’ है।इसी लिए आपको बाद में कहीं भी इसका दुहराव देखने को नहीं मिलता और इसे नजीर नहीं बनाया जाता।तात्पर्य यह है कि भाषा के साथ किये जाने वाले इस प्रकार के प्रयोग व्याकरण के समानांतर अपनी हस्ती का निर्माण नहीं करते ,बल्कि भाषिक संरचना का एक हिस्सा ही होते हैं।

    दूसरी बात, ज़फर इकबाल साहब की जो ग़ज़ल कोट की गई है,उसके बारे में भी मैं पूरी विनम्रता से कुछ सवाल पूछना चाहता हूँ।1950 और 60 के दशक में हिंदी साहित्य में भी ‘अकविता’ और अंग्रेजी साहित्य में ‘Absurd Literature’ जैसी प्रवृतियों को नामचीन लोगों द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा था।ज़फर इकबाल साहब की यह कोशिश कहीं उसी सिलसिले की तो कड़ी नहीं है।और अगर ऐसा नहीं है तो ग़ज़ल की मुख्यधारा से इस प्रकार के लफ्ज़ उसी तरह अनुपस्थित क्यों हैं जैसे ‘अकविता’ और ‘Absurd Literature’ समकालीन साहित्य के परिदृश्य से बाहर धकेल जा चुका है।साहित्य में नई और क्रांतिकारी अवधारणाओ की कमी नहीं है,लेकिन टिक वही पाती हैं जो पाठक को अपील करती हैं,न की आलोचक को।

    तीसरी बात,आपने गुलज़ार साहब के ‘गीला पानी’ का सन्दर्भ दिया है।लेकिन ये लफ़्ज़ों के मनमाने इस्तेमाल का मामला थोड़े ही है,यह तो एक ‘मेटाफर’ है।एक ‘Abstract Image’,एक अमूर्त बिम्ब।दुनिया भर में पोएट्री में इस ‘Figure of Speech’ का इस्तेमाल पाठक को चौंकाने और भावों व परिस्थितियों की गहनता को प्रभावी तरीके से अभिव्यक्त करते के लिए किया जाता है।ये दीगर बात है कि एक सीमा से अधिक ‘मेटाफर’ भी टेक्स्ट को बोझिल ही बनाते हैं।

    आपने ठीक ही कहा है कि ‘लफ्ज़’ के माध्यम से ग़ज़ल तक आने वाले अधिकतर लोग हिंदी के दरवाजे से आ रहे हैं और उन्हें उर्दू अदब की रवायतों का कुछ ख़ास इल्म नहीं है।लेकिन मेरी नज़र में संवेदनाएं और उनकी समझ ज़ात का हिस्सा होती हैं,ज़ुबान की नहीं।यही कारण है कि सोच के स्तर पर हम उन अदीबों से भी ‘Identify’ करते हैं जिनकी भाषा या संस्कृति से हमारा कोई ताल्लुक नहीं होता।किसी ख़ास तबके की मिल्कियत समझे जाने का दुष्परिणाम और दंश संस्कृत जैसी उत्कृष्ट भाषा आज झेल रही है।भगवान् के लिए,ग़ज़लों की हिन्दुस्तानी ज़ुबान को इसका शिकार न होने दें।हिंदी को लेकर उर्दू ग़ज़ल के पैरोकारों के विचारों में भी एक अबूझ दोहरापन दिखाई देता है।एक और तो आप नए प्रयोगों की सराहना करते हैं,वहीँ दूसरी ओर हिंदी की बोल-चाल और यहाँ तक की शब्दकोष में शामिल शब्दों को भी ग़ज़ल में बरते जाने पर ऐतराज़ है।

    मसलन,बह्र की ज़रूरतों के अनुसार आप ‘राह’ को ‘रह’ तो कर सकते हैं,किन्तु’सुब्ह’ को ‘सुबह’ लिखना कुफ्र है;’किनारा’ को ‘किनार’ तो बाँधा जा सकता है,किन्तु ‘किलआ’ को ‘किला’ नहीं;’नदी’ को ‘नद्दी’ बाँधने पर कोई पाबंदी नहीं,किन्तु ‘शह्र’ को ‘शहर’ कहने को जाहिली का सबूत मान लिया जाता है। कई प्रचलित शब्दों के रूप बिगाड़ने पर कोई रोक नहीं है,किन्तु नुक्ते की हेर-फेर से हंगामा खड़ा हो जाता है,यह बात मैं यह जानते हुए कह रहा हूँ की नुक्ते से मआनी बदल जाते हैं।यहाँ मेरा उद्देश्य इन प्रयोगों को चुनौती देना नहीं है।बल्कि मैं यह अर्ज़ करना चाहता हूँ कि ये सारी बातें बहस तलब हैं।

    अंत में यही कहूँगा कि कोई भी सार्थक रचना घोर अनुशासन मांगती है।यह अनुशासन विचारों का तो होता ही है,व्याकरण और शिल्प का भी होता है।महान लेखकों की वे रचनाएं जो अपनी सहजता और सार्वभौमिकता के कारण कालजयी हो चुकी हैं,वे भी इसी अनुशासन और कठोर परिश्रम की उपज हैं।कहा भी गया है:”Effortlessness is often the outcome of transcendental efforts”.

    • saurabh bhai…. aapne wah saari baat kah di jo mujhe bhi kahni thi… two thumbs up..

    • saurabh ji…………….main baishtar baatain apne indetail comment main kar chuka houn…dohraaoun ga naheen..

      aap ka ye comment main ne copy paste kar liya hai qareeban 10 baar aur padhoun ga…………………..ye hai wo saleeqa…(jo mujhay dikhaaei na de to mayoos ho jaata houn)…aap ne intehaaei khoobsurat tareeqay se chand lafzoun main aik aesi baat kar di jis ke liyay kitaab ke zaroorat thi……………aap ki kuch aik baatoun se ikhtilaaf karna chahate huwe bhi……………………main sirf aur sirf aap ka shukriya karoun ga ke aap ne nihayat mudallal baatain ki hain…

      lekan bhai mere main sirf aur sirf urdu ghazal ka thaika le raha houn filhaal………….likhta bhi urdu ghazal hi houn…..so issi ko le ke baat bhi kar raha houn..
      aap ko mere tajrubaat pasand naheen aaye…………………………??? so aap ko mukammal ikhtiyaar deta houn……..lekan mere in tamam ashaar main main sirf aur sirf CREATIVE tha…maa saraswati ne khud ye sab mujh se karwa liya….tufail bhai ye misra na dete?…..to mere haan ye qawafi na aate…aate bhi to yun khayaalay (lo aik aur lafz ho gaya) na jaate…………………………………..so mujhay naheen pata ye maani de rahe hain ke naheen…….lekan main is ke liyay maa saraswati ka shukrguzaar houn…………………………………ke uss ne mere uss khayaal ko hubahu share ke jaamay main dhaal diya…jis ke liyay mujhay lafz kam padne wale the…….

      aap ke comment par aik martaba phir thankssssssssssssssssssssss……
      baqi aap koshish keejyay…..mere ye ashaar bhi maani de hi rahe hain….aap samjh jaayen ge..

    • बहुत उम्दा लेख है।ज़िंदाबाद सौरभ

  24. अनुस्वार और चंद्र बिंदी का तो बहुत ही बड़ा लोचा है भाई। जिन्होंने थ्री इडियट्स फिल्म देखी हो उन्हें याद होगा चतुर का वो डायलोग ‘हंस [हन्स] लो’ । रट्टा मारने वाले उस किरदार को ‘हँसना’ और ‘हंसना’ का अंतर नहीं पता। ब्लेकबेरी जनरेशन के एक विशिष्ट तबके को रिप्रजेंट करते इस किरदार को “धन – स्तन” तथा “चमत्कार – बलात्कार” के बीच का अंतर समझने में इन्टरेस्ट भी नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे किसी छपोत्सुक [मयंक भाई आप से इस शब्द को इस्तेमाल करने की इजाज़त लेते हुये 🙂 ] को सिर्फ़ पत्रिका में छपने, संपादक से जुडने भर में इन्टरेस्ट हो।

    लोग ‘भँवर’ को ‘भंवर’ लिखते हैं।

    ‘खण्डहर’ को न सिर्फ़ ‘खंडर’ बल्कि ‘खँड़र’ भी इस्तेमाल किया जा रहा है। एकाधी जगह मैंने भी किया है। चूँकि मैं इस शब्द से जड़ों सहित जुड़ा हूँ इसलिये कम से कम मेरे द्वारा इस का यूँ इस्तेमाल ग़लत ही है।

    ‘नदी’ शब्द किस धातु से बना है इस पर भी विचार किया जाना चाहिये।

    क्रियाओं के इस्तेमाल पर भी हमें ग़ौर करना तो चाहिये। यथा ‘बोलना’ और ‘कहना’ के बीच के बारीक अन्तर को समझना मेरे नज़दीक ज़रूरी है।

    जब भी सीनियर्स हमें कुछ अच्छी बात बताते हैं और वह बात हमें तर्क सहित समझ में आ जाती है तो फिर हमेशा के लिये स्मृति में दर्ज़ भी हो जाती है। दादा ने एक बार मुझे बताया था कि हर्फ़ गिराते वक़्त याद रखो कि यूँ हर्फ़ गिरने के बाद की ध्वनि किसी अन्य शब्द से मेल तो नहीं खा रही? इस तरह से जब कोई समझाता है तो अच्छे से समझ में आ जाता है। यथा बेखुदी में ‘बे’ का हर्फ़ गिरा देंगे तो वो बखुदी जैसा सुनने में आएगा।

    ब्रजभाषा में तो ‘बतियाय रहा’ इस्तेमाल देखा, आधुनिक टाइप हिन्दी उर्फ़ खड़ी बोली उर्फ़ हिंदुस्तानी या हिंग्लिश्तानी में भी इस का इस्तेमाल देखा है; पर क्या ग़ज़ल [गजलवा नाही] में भी इस का इस्तेमाल है? यदि है – तो उस का परिमाण और उस की विश्वसनीयता समझना [जानना नहीं] भी ज़रूरी है।

    एक वाक्य का उदाहरण लते हैं:-
    “हमें बाइ डिफ़ाल्ट किसी भाषा / विधा विशेष को गरियाने से परहेज़ करना चाहिये चूँकि ऊल-जलूल हरकतें सभी जगह होती रही हैं और मापदण्डों को सहजने वाले भी हर जगह मौजूद हैं। ”

    आ. सुबोध साहब इस ऊपर वाले उदाहरण में ‘गरियाने’ लफ़्ज़ का प्रयोग देखिये, यहाँ एक दम फिट्टम-फिट्ट लग रहा है पर ग़ज़ल में शायद एलियन टाइप लगेगा। यह एक वृहद विषय है और उम्मीद करता हूँ कुछ हफ़्तों बाद हम इस बार किसी ठोस नतीज़े पर पहुँच पायेंगे।

    आओ थोड़ा हन्स लें:-

    बचपन में हम में से अधिकांश ने रट्टे लगाये होंगे – अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अ:। तुलसीदास जी ने भी हमारे लिये काम काफ़ी आसान कर दिया है – काज, काजा, काजि, काजी, काजु, काजू, वग़ैरह – वग़ैरह ….. जो नहीं जोड़े उन्हें कोई और धुरंधर जोड़ देगा, सनद जो मौजूद है।

  25. सबसे पहले तो सवाल उठता है कि हम जो रचना लिख रहे हैं वो इल्मी है या फ़िल्मी?यदि फ़िल्मी है तो वहाँ का नियम है “जो हिट है सो फिट है” “जो दिखता है वो बिकता है”!मगर अदब के नियम अलग हैं अगर ऐसा न होता तो मुशायरों के कई हीरो अदब में जीरो न होते…
    फ़िल्म में कुछ भी लिखा जा सकता है.. रमपमपोज भी ..मटक कली मसक कली भी ..गीला पानी भी .. आजा ज़री वाले नीले आसमाने के तले भी.. और सौ ग्राम ज़िंदगी भी ..जैसे क्रिकेट में एक कहावत है “रन आना चाहिए वो बैट से आये कि पैड से आये “ वैसे ही फ़िल्मी फार्मूला है हिट होना चाहिए वो लफ़्ज़ों की टांग तोड़के हो या किसी मनुष्य की टांग तोड़के .. इसलिए फ़िल्मी भाषा और शब्दावली को अदब के साथ बह्स में शामिल करना मुनासिब नहीं.अदब में केवल अदब की ही बातें हों ..
    अब आइये ज़रा दूसरे पहलू से देखें.. हमारे पूर्वांचल में बोली जाने वाली बोलियों (अवधी,भोजपुरी,इत्यादी)में हर शब्द को बिगाड़कर बोला जाता है मसलन- इरशाद-इरसदवा मौसम-मौसमवा गाड़ी-गड़िया पान-पनवा इत्यादि ..
    यहाँ अशुद्ध ही शुद्ध है इस सन्दर्भ में एक मज़ेदार घटना सुनिए ..
    हमारे एक पड़ोसी थे दूधनाथ जी उनके यहाँ बेटी पैदा हुई…एक दिन दूधनाथ जी ने हमारे वालिद से कहा कि मित्रता की निशानी के तौर पर मेरी बेटी का नाम आप रखें..हमारे वालिद साहब ने बहुत शोध करके उस बच्ची का नाम वैष्णो देवी रखा वालिद साहब मुतमइन थे की अब इस नाम को तो कोई बिगाड़ नहीं पायेगा ..लेकिन थोड़े ही दिनों बाद सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया वैष्णो देवी अहिस्ता-अहिस्ता बैसनवा बन गई आज वो बच्ची केवल काग़ज़ों में वैष्णो देवी है ..बैसनवा में जो आत्मीयता है वो शायद वैष्णो देवी में नहीं.. यहाँ अशुद्ध में जो आनन्द है वो शुद्ध में नहीं..अब अगर इस भाषा में अदबी काम होगा तो उसमें शब्दों के स्वरुप से छेड़छाड़ किये बिना मज़ा ही नहीं आएगा ..प्रेमचंद,फणीश्वरनाथ रेनू,शिवमूर्ति,अब्दुलबिस्मिल्लाह,राही मासूम रज़ा आदि तमाम साहित्यकारों की रचनाएं इस बात का प्रमाण हैं..ग़ज़ल भी अगर इस भाषा में कही जाए तो लफ़्ज़ रौशन-रौशानाये इन्तेहा-इन्ताहाये हो सकता है और अच्छा भी लगेगा… लेकिन हम उर्दू में ग़ज़ल कह रहे हों तो यही अलफ़ाज़ खटकते हैं..

  26. सुबोध साहब ने उसी ख़ूबसूरती से अपनी बात रखी है जो एक वकील बरतता है, जिसका मक़सद सच सामने लाना नहीं होता बल्कि केस जीतना होता है। आइये उनकी दलीलों पर बात की जाये। खण्डहर { 2+1+2 } मूलतः हिंदी का लफ़्ज़ है और उर्दू में मुस्तआर लिया गया है। इस लफ्ज़ को खंडर { 1+2 } बरता जाता है। किसी शब्द का दूसरी भाषा में जा कर भिन्न ढंग से बोला, लिखा, बरता जाना नयी बात नहीं है। तुर्की का बग़ुम और बेगिम उर्दू में बेगम बना। बरता,बोला गया। ध्यान रखने की बात ये है कि end of the day बचा क्या ? क्या हम ग़ज़ल में खण्डहर बरतते हैं ? यहाँ खंडर 1+2 ही बरता जाता। कई लफ़्ज़ जैसे नदी/नद्दी, मिर्च /मिरच, तर्ह/तरह बरते,बोले जाते हैं। इन अल्फ़ाज़ को हम चलन में नहीं लाते। एक पुराना मक़ूला है ‘ग़लत-उल-अवाम फ़सीह कुन’. जब अवाम ग़लत बोलने लगते हैं तो वो चलन फ़सीह यानी राइज/जायज़ हो जाता है। नरभसाये,बतियाये जैसे बरताव कुछ कहानीकार कर रहे हैं मगर क्या ये चलन में आये हैं। पटने, दरभंगे के रिक्शे वालों की बात तो कह नहीं सकता मगर बिहार के सामान्य लोग ये नहीं बोलते।
    यूँ तो ज़बान की टकसाल हर शहर,शाइर, शख्स की कुछ हद तक अपनी होती है, मगर इसमें लफ़्ज़ों की ठुकाई, पिटाई की छूट, उनका तोड़ा, फोड़ा जाना शामिल नहीं होता। जन व्यवहार, जन सामान्य का चलन तय करता है कि क्या ठीक है। जहाँ कथ्य स्पष्ट होने की जगह धूमिल हो रहा हो तो इस तरह की छूट का क्या माने ? इसी ग़ज़ल का एक प्रयोग देखिये और मुझे इसका मानी बताइये ?

    आख़िरश तख्ते-शाह तक पहुंचे
    एक कशकोल के गदाये हम

    अरूज़ी क़ायदे न यूँ ही बने हैं, न यूँ ही से लोगों ने बनाये हैं, न यूँ ही रद किये जाने चाहिये और न यूँ ही रद किये जा सकते हैं।

    • Tufail Saheb: Muaaf keejiyega, maiN samjhta tha ki kisi bhee bahas men apna mat manwaane ke liye hee baat kee jaati hai. Wahi maiN’ne kiye: isiliye mujhe ye remark thoDa personal aur atpata laga: “सुबोध साहब ने उसी ख़ूबसूरती से अपनी बात रखी है जो एक वकील बरतता है, जिसका मक़सद सच सामने लाना नहीं होता बल्कि केस जीतना होता है।”. jahaan tak maiN dekh rahaa hooN sabhi bhaag lene waale apni apni baat kah kee hi wakaalat kar rahe haiN.
      Apni baat ki wakaalat ke silsile men maiN’ne kaha ki zabaan apna roop tarah tarah se badalti rahti hai aur uske teen pahloo haiN (do naheeN) (i) Ek zabaan se doosri zabaan tak jaane meN badlaav; (ii) lafzon ka daanista naye dhang se apni hi zabaan men istemaal, aur (iii) waqt ke saath badlaav. InheeN teen pahluoN ko daleel ka hissa banaate hue maiN’ne apna case pesh kiya hai. Na maaloom ismeN ye kaise jhalak gaya ki maiN mudde ki baat naheeN kar raha balki apni hee koi baat manwaane ki koshish kar rahaa hooN. Very very sorry.

      • सुबोध लाल साहब मेरे जुमलों से आपको तकलीफ़ पहुँची इसके लिये मुआफ़ी पेश करता हूँ। मुझे बेहतर अलफ़ाज़ का इस्तेमाल करना चाहिए था।

  27. Agar koi ye poochhe ki mere 12 bachche khud ke hai merei bachcha god lena
    uchit hai nahin, Alfaz ke shakl badalna uchit ki nahi aisa hi prashn hai.
    itne shabd bhandar se agar aap apni bhawnaywn prakat nahi kar sakte to
    zaroor shabdon ke shakl badalna uchit thahraya ja sakta hai.kewak shabdon
    se khelne ke liye shakl badalna uchit nahi hai. kyoki shabd ko brahma mana
    gaya hai.

  28. Zabaan ek zindaa haqeeqat hai jo waqt ke saath roop badalti hai, baDhti hai, aam bol chaal se muta’assar hoti hai, doosree zabaanoN ke alfaaz se naata joDtee hai aur apne istemaal ke naye tareeqe sujhaati hai. Hindi ka ek shabd hai “खंडहर”. Is kaa Hindi meN uchchaaran hai “khand=har”, lekin Urdu meN is lafz ko “खंडर” (talaffuz khaNdar) banaa diya gaya hai, jo jaaiz hai. Ye hi baat “San-desh” ke liye bhi laagoo hoti hai jiska istemaal “SaNdes” ki tarah hota hai. Pakistan ke ek risaale ke liye bheji huee meri ek ghazal men “Khand-har” qaafiya istemaal kiya gaya tha. Editor Saheb ne wo sher ghazal meN shaamil naheeN kiya aur. alhada se, mujhe uskee wajah bhee bataa dee. Ye do misaaleN un lafzoN ki hain jinka talaffuz badal gaya, lekin wo lafz Urdu men jaaiz to ho gaye.
    Ab zikr kiya jaaye un lafzon ka jin ka istemaal naye dhang se kiya gaya hai ya kiya jaa sakta hai. English meN to ye chhoot aam hai ki kisi lafz ko verb bana diya jaaye. Jaise “increase distance” ko “distance” ya “distanced” ke roop men prayog kiya jaa sakta hai. [For instance, “I increased my distance from the event” can also be expressed as “I distanced myself from the event”.] Yahi baat Urdu/Hindi ke lafzon ke saath bhi hui hai shayad. Jaise aam taur par kaha jaata “ham bahut batiyaaye”. Mool shabd hai “batiyaana”, usko aage baDha kar “batiyaaye” bana diya gaya hai jo bahut expressive hai. Lafz men maiN’ne is portal se juDe hue kuchh motabar naamoN ko “Talaash” ka ek roop istemaal karte hue dekha hai: “talaashna” ya “talaashiye” waghaira. MaiN shayad khud ye lafz istemaal na karooN lekin is baat ka aadar karta hooN ki is lafz ke arth ko vrihad roop diya jaa raha hai. Yaqeen keejiye ek hi mool shabd se uske alag alag forms bante hain jaise noun se verb, adverb, adjective etc.

    Dr Liyaaqat Jaafri ne jo alfaaz qaafiye ke roop men istemaal kiye haiN vo mujhe bahut hee lubhaavne lage kyunKi unhoN’ne un lafzoN ko ENHANCE kiya hai, ye raasta khola hai ki bajaaye teen chaar alfaaz ke ek hi (naye) lafz se kaam chal jaaye jo apne aap meN ek dilchasp tajruba hai (yahaan phir vahi baat hai : kyun na tajruba aur tajurba donoN ko istemaal kiya jaaye. DAPK men mere ‘Tajurba’ lafz par do saal pahle Aadik Bharti Saheb ne etraaz kiya tha). Dr Jaafri ki ghazal ka ek sher misaal ke taur par leN. Farmaate hain:
    कितनी तेज़ी से सरबुलंद हुए
    कितनी शिद्दत से इन्तिहाये हम
    yahaan “intihaaye” lafz teen char lafzoN ka samagra hai. Agar “intihaaye” na kahaa jaata to shayar ko “intiha tak aaye ham” ya aise hee do-chaar lafz istemaal karna paDte. Aakhir meN Iqbal ka sabse ziyaadah mash’hoor sher quote karna chaahta hooN:
    “Achchha hai dil ke paas rahe paasbaan-e-aql
    Lekin kabhee kabhee ise tanha bhee chhoD de”.
    Arooz ya takneeki hawaale sirf ek raasta hain manzil naheeN.

  29. दोस्तो, बोली पहले होती है और ज़बान बाद में बनती है। यानी बोली में कुछ तब्दील होता है जिसके बाद उसे ज़बान कहा जाता है। वो क्या है आइये इस पर बात करें, शायद यहाँ से रास्ता कुछ साफ़ हो …

    किसी भी ज़बान के लिये बोलने वाले लोग-काल खंड, लिपि, व्याकरण और साहित्य का होना अनिवार्य है। यूँ कई ज़बानों की एक ही लिपि हो सकती है जैसे गुजराती, मराठी , बंगाली, हिंदी जैसी कई ज़बानों की लिपि देवनागरी ही है। व्याकरण में थोड़ी सी ही भिन्नता है। इन गुणों में एक या कई का अभाव बोली कहलाता है।

    गोस्वामी तुलसीदास जी की एक चौपाई देखिये

    प्रभु की कृपा भयहु सब काजू
    जनम हमार सुफल भा राजू ………….. इस चौपाई में उन्होंने काम/कार्य के लिये काजू इस्तेमाल किया है। उन्हीं की कई चौपाइयों में काजा का इस्तेमाल भी मिलता है।

    प्रवासी नगर कीजे सब काजा
    ह्रदय राखि कौसलपुर राजा

    हमारा के लिये अवधी में हमार, हमरा, हमारू कई चलन रहे हैं। इन्हीं बरतावों की कपड़छन से ज़बान बनायी गयी। ये काम किसी इस-उस ने नहीं किया है। इनको असातिज़ा ने तय किया है। प्रमुख रूप से जनाबे-अमीर मीनाई साहब का नाम सनद के तौर पर लिया जाता है। उन्होंने बरते न जाने वाले अलफ़ाज़ पर काम किया जो ‘मतरूकात’ की शक्ल में सामने आया। ये लोग ख़ुद बहुत अच्छे शायर थे। इन्हें कभी ज़ुरूरते-शेरी की ओट लेते नहीं पकड़ा गया। इस लिये इन लोगों का कहा सनद माना गया। इनके तय किये नियम ग़लत-सहीह तय करने की कसौटी बने।फिर भी लोगों ने प्रयोग किये।

    हिंदी और उर्दू पर ही बात करनी है इस लिए उनका ही चलन ध्यान में रख कर बात कर रहा हूं। हिंदी में अकहानी, अगीत, अब्सर्ड उपन्यास का हो-हल्ला रहा। इतनी धींगा-मुश्ती हुई कि इस धर-पटक में कविता की खोपड़ी फूट गयी। अब इस अमर कविता की किताब, श्री लाल शुक्ल के अनुसार ‘ अगर सरकारी ख़रीद न हो तो फ़ौरन मर जाये’

    हमारे यहाँ भी एंटी ग़ज़ल, आज़ाद ग़ज़ल का ऊधम मचाया गया। यहाँ एक फ़र्क़ था/है कि यहाँ असातिज़ा मौजूद हैं। उस्ताद शागिर्दों की इस्लाह करते हैं। यानी ग़लत और ठीक की जानकारी देते हैं। उनका कहा सनद ही नहीं था बल्कि उनके कहे को न मानना मुमकिन न था। मुशायरों में ऐसी कोई बेतुकी वहीँ टोक दी गयी औए उसने वहीँ दम तोड़ दिया। काग़ज़ पर अगर कुछ आया तो फ़ौरन तरदीद हुई। एक ही चीज़ बची फ़िल्म। उसको रद फ़ौरन नहीं किया जा सकता था मगर ऐसी हरकत करने वाले अदब से बाहर ही रखे गये।

    आइये अब गुलज़ार साहब और ज़फ़र इक़बाल साहब पर भी बात की जाये चूँकि लियाक़त जाफ़री साहब ने उन्हें सनद बनाने की कोशिश की है। गुलज़ार साहब के यहाँ बहुत ताज़गी है मगर वो मूल रूप से फ़िल्म के आदमी हैं और उस ज़रीये में आवाज़ों का अपना महत्व है। चप्पा-चप्पा चरखा चले … में चप्पा-चप्पा की कोई तुक नहीं है, चप्पा चुल्लू या paw को कहते हैं, मगर गाने में ध्वन्यार्थव्यंजना की ज़ुरूरत काम कर रही है। इसे सनद नहीं माना जा सकता . इसी तरह गीला-पानी बांधने का क्या मक़सद हो सकता है, सिवा इसके कि चौंकाने के लिए कुछ ऊटपटांग किया जाये। नया इस्तेमाल तब काम का होता है जब वो चलन बन जाये।क्या किसी ने गुलज़ार साहब के अलावा ‘आँखों की महकती खुशबू देखी या बरती है जिसे प्यार से छू कर रिश्तों का इलज़ाम दिया जा सके ‘ ये सब अब्सर्ड की धां-धूं के ज़माने की चीज़ें हैं, जिनका न तो चलन तब हुआ न अब होगा. ज़फ़र इक़बाल पाकिस्तान के ऐसे शायर हैं, जिन्हें इस बात का शिकवा रहा है कि दूसरे शायर उनके लहजे की चोरी करते हैं और वो एक नया लहजा ‘रत्बो-याबिस’ में ले कर आये। इस का शाब्दिक अर्थ घास-फूस, कूड़ा-करकट होता है। उसी किताब के कुछ मतले, शेर देखिये

    आये अगर ग़यासुद्दीन महमूद
    खिलायें उसे ओकाडे के अमरूद

    टन-टन-टन-टन टनन-टनन-टे
    चुप हैं मुख-मंदिरों के घंटे

    दिल के सफ़हे पे खूब छापा
    उस सांवले हुस्न का सरापा

    उल्टा ही लिख गया हूँ यानी
    आपा-धापी को आपी-धापा

    इसी में एक मिसरा है ‘डी सी आफ़िस के बस सिटापा’. तो मुद्दआ ये है कि आपी-धापा चलन में आया / ये केवल लोगों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने के करतब हैं। आज़ाद ग़ज़ल के मूजिद ‘मज़हर’इमाम साहब ने मशहूर गीत या नज़्म ‘ इक चमेली के मंडवे तले – दो बदन प्यार की आग में जल गये’ को आज़ाद ग़ज़ल क़रार दिया था। खाकसार ने उनसे इस का कारण पूछा था। उन्होंने भी यही जवाब दिया कि मियां हमें लोग गर्दानते नहीं थे सो ये हंगामा खड़ा किया। अगर इसे संजीदगी से लेता तो क्या अपने मजमुए में सिर्फ़ दो ही आज़ाद ग़ज़ल रखता .
    जाफ़री साहब की इस ग़ज़ल में बरते गये ये अल्फ़ाज़ रौशनाये, सराये, इन्तिहाये, आशनाये, गदाये,हाये-हाये, मलगिजाये मेरे नज़दीक ठीक नहीं हैं तो इसका कारण यही है कि मुझे क्या ठीक है और क्या नहीं इसकी तालीम मिली है।

    • Tufail Saheb:
      Abhi abhi ek bahut lamba note likha hai, is liye is note ko bahut short rakhooNga.
      “Chappa chappa charkha chale” men ‘chappa’ shabd us sense meN istemaal kiya gaya hai jaise ham kahte haiN “Chappa chappa chhaan Maara”.
      Gulzaar Saheb filmon men zaroor likhte haiN lekin FILMI shayar naheeN haiN. “Raat Pashmeene ki…” aur “Pukhraaj” is baat ki daleel hain. Wo filmon meN bhi itnee achchhe shayri kar guzarte hain ki doosre shayroN ko zindagi bhar rashk ho. ‘Bunty aur Bali’ meN kahte haiN “Dekhna aasmaaN ke sire khul gaye haiN kaheeN”. Khair Gulzaar saheb ki shayaree is waqt mudda naheen hai, lekin shayar ka andaaz-e-bayaaN agar chauNkaane waala ho to uske kalaam meN nayapan jhalakta jo tavajjo par majboor karta hai.

      • Subodh sahab, Gulzar sahab ki kahan ke achchhe hone me’n to mujh sahit kisi ko bhi shak nahi’n hai. Wo bahut umda nazmgo hai’n. Bahas alafaz ke galat barte jane aur betuke prayogo’n ki hai. Gulzar sahab ki jin chizo’n par khaksar ne bat ki hai un par aapka kuchh kahna ziyada maqool hoga.
        Muddaa dil khali-khali bartan hai ya Yara biraha ki sili-sili rat ka jalana ki khubsurati ko nakarne ka nahin hai balki Gila Pani, Hmne dekhi hai un aankho’n ki mahakati Khushbu aur wo bhi aisi jise chhua ja sake, ke betuke hone ka hai.
        Isi tarah chappa-chappa ka fizul istemal kaise aur kyo’n thik thahraya ja sakta hai. Is tarah ke prayogo’n par aapke mool comment me’n bat karne ki ijazat chahta hu’n.

  30. यह एक महत्वपूर्ण बातचीत है और इस के भवितव्य को देख कर इस का ऐतिहासिक महत्व परिलक्षित हो रहा है। मैंने अधिक से अधिक लोगों के जोड़ने के उद्देश्य से इसे अपनी ट्विटर, G+ और फेसबुक वाल पर शेयर किया है, और लोगों से यहाँ आ कर विचार व्यक्त करने का निवेदन किया है। अन्य साथी भी चाहें तो ऐसा कर सकते हैं।

  31. बात अभी सिर्फ़ शुरू हुई है। दादा के कहने पर हम लोगों ने इस विषय को मुल्तवी रखा। जहाँ तक मेरा अपना सवाल है मैं परम्परा के साथ-साथ नई तलाशों का समर्थक हूँ। पर साथ ही ये भी कहूँगा कि नई तलाश हमें हास्यास्पद न बना दे। आप लोगों की सुहबत के बाद इतना अंदाज़ा होने लगा है कि जब गुलजार साहब ‘गीला पानी’ का इस्तेमाल करते हैं तो किसी भी तरह से मन में हास्य उत्पन्न नहीं होता। हाँ अचरज के भाव ज़रूर उत्पन्न हुये थे जब पहलेपहल सुना था, और साथ ही सोच के तन्तु भी क्रियाशील हुये थे। परन्तु इंतिहाये टाइप शब्द ज़बान पर आते ही ……………

    लियाक़त साहब ख़ुद भी एक जानकार व्यक्ति हैं, उन की राय पर भी हमारा ध्यान रहेगा। कृपया बात को अन्यथा न लें, हम में से अधिकतर बल्कि अमूमन सभी आगे की जानिब देखने वाले ही हैं। सभी साथियों की राय का इंतज़ार रहेगा।

  32. इस ग़ज़ल पर बरते गये अल्फ़ाज़ पर स्वप्निल तिवारी ‘आतिश’ साहब ने मेरी राय मांगी। ये वो कमेंट है जो मैंने उनकी बात पर दिया और फिर जाफ़री साहब ने भी कई लम्बे-लम्बे कमेंट दिये। अब अपनी नाक़िस राय हाज़िर करता हूँ ……….
    स्वप्निल आपने जो विषय उठाया है वो तफ़सीली मज़मून मांगता है। यहाँ जिसकी गुंजाइश इस लिए नहीं है कि अभी फ़ोकस तरह पर होना चाहिए, मगर ये विषय सनद का है इस लिए बात कम लफ़्ज़ों में और सटल ढंग से रखता हूँ। आप शायर लोग ही लफ़्ज़ की साख्त, उसका वज़्न तय करते हैं। नस्रनिगार ये काम कर ही नहीं सकते कि छंद के कारण ही लफ़्ज़ का वज़्न तय हो सकता है। ज़बान के ज़ाब्ते-क़ायदे हमेशा बाद में बनते हैं, पहले वो बोली होती है। बोली या कई बोलियों की छान-फटक,कपड़-छन करने के बाद ज़बान की तशकील होती है। हिंदी-उर्दू के सिलसिले में ये काम चूँकि कई प्रान्तों में हुआ इस लिए इसमें मत-भिन्नता है, मगर शायरी के सिलसिले में एकरूपता है। जैसे कभी-कभार मुंह का ज़ायक़ा बदलने के लिये जामुन खा ली जाती है उसी तरह हैदराबादी लह्जे की ग़ज़ल, जनाबे-मीर/ हज़रते-मुसहफ़ी के लहजे की ग़ज़ल कह ली जाती हैं। इस बात का भी ध्यान रखना ज़ुरूरी होगा कि इस तरह के लहजे की ग़ज़लें हैदराबादी लोग, मीर की परंपरा के लोग भी दो-चार ही कहते हैं। लफ़्ज़ का बर्ताव अब लगभग तय सा ही है। जाफ़री साहब की इस ग़ज़ल में बरते गये ये अल्फ़ाज़ रौशनाये, सराये, इन्तिहाये, आशनाये, गदाये,हाये-हाये, मलगिजाये मेरे नज़दीक ठीक नहीं हैं। हम लोगों के लिए लखनऊ के असातिज़ा ही सनद हैं { वैसे लखनऊ के असातिज़ा को सभी सनद मानते हैं }. उनके द्वारा बरता गया लफ़्ज़ का बर्ताव ही हमारे लिए चलन है। अल्फ़ाज़ के वज़्न जानने के लिए लखनऊ की लुग़त है जिसमें लफ़्ज़ शेर में ढाले गए हैं,और उनका वज़्न मालूम पड़ जाता है। अगर कोई लफ़्ज़ उस लुग़त में नहीं है तो उस्तादों के शेर सनद माने जाते हैं। वहां भी न मिलने पर लखनऊ के शुरफ़ा उस लफ़्ज़ को जैसे बोलते हैं सनद मान कर बरता जाता है। ये दर्जा आपके बुज़ुर्गों को इस लिये हासिल हुआ है कि उन्होंने ज़बान को मांझ कर आईना बना दिया। उस्तादों के ऐसे मजमुए हैं जिनकी ग़ज़लों में एक भी हर्फ़ ऐसा नहीं है जिसमें नुक्ता लगता हो।

    सराय का वज़्न 121, हाय-हाय का 21-21 होता है। इन्तिहाये, आशनाये, गदाये,मलगिजाये कोई लफ़्ज़ नहीं हैं। ये इस तरह है कि इस ज़मीन में ‘घबराये’ वज़्न के कारण नहीं आ सकता और कोई शायर बांधना चाहे तो इस लफ़्ज़ को बांधने के लिए घाबराये नहीं कर सकता। बावजूद इसके कि लफ़्ज़ समझ में आ जायेगा। यानी ग़ज़ल में कोई लफ़्ज़ सिर्फ़ समझ में आने के कारण नहीं बरता जा सकता।

    निम्नलिखित शेर हश्वो-ज़वाइद का शिकार है। लफ़्ज़ कम इस्तेमाल हुए हैं।

    बेख़याली में आज पूरे रोज़
    एक ही गीत गुनगुनाये हम

    वैसे लियाक़त जाफ़री साहब जानकार आदमी हैं। मुझे लगता है कि उन्होंने जानबूझ कर ये लफ़्ज़ बरते हैं ताकि उनकी राह से लोगों तक जानकारी पहुँच सके। कोई दूसरा तो बुरा मान सकता है, सो उन्होंने ख़ुद को धार पर रख लिया होगा

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