आंख में सबके अभी तक जो समाई हुई है
आग ये श्ह्र में अंधों की लगाई हुई है
भूलना क्या था ये तुम भूल गये और इधर
याद है हमको कि एक याद भुलाई हुई है
सच्चे लगते नहीं ये शेखो-बरहमन हमको
एक दीवार तो हमने भी उठाई हुई है
जिससे मिट्टी की इबादत का सबक़ सीखा था
वो कहानी तो मेरी माँ की सुनाई हुई है
ख़ाक तमीर मुहब्बत की इमारत होगी
सिर्फ़ कहने के लिए रस्म-अदाई हुई है
वक़्त की शाख से कब पत्ता जुड़ा हो जाए
बात हालाँकि अभी तक तो बनाई हुई है
हर तरफ फूल मुहब्बत के खिले हैं नाज़िम
फस्ल ये हमने तस्सव्वुर में उगाई हुई है
‘नाज़िम’ नक़वी 09811400468
आंख में सबके अभी तक जो समाई हुई है
आग ये श्ह्र में अंधों की लगाई हुई है
नई कहन !!जिनकी खुद कोई सोच समझ और दिशा नहीं वो ही अराजकता पैदा करते है और सभी का ध्यान अमन से खींच कर फिरकापरस्ती की ओर ले जाते है ! मतले की खूब्सूरती ये भी है कि ऊला मिसरा बेहद स्वतंत्र है और इस पर ये गिरह भी लग सकती है इसकी दूर दूर तलक आहट भी नहीं मिलती –ये मेयारी शाइरी की सनद भी है !! वाह वाह नाज़िम साहब !!
भूलना क्या था ये तुम भूल गये और इधर
याद है हमको कि एक याद भुलाई हुई है
लफ़्ज़ खूब और खूब्सूरती से बरते गये हैं –
सच्चे लगते नहीं ये शेखो-बरहमन हमको
एक दीवार तो हमने भी उठाई हुई है
तस्लीम !! शाइरी की तारीख़ में जिन अल्फाज़ पर से परदा उठाया गया है –उनमें – दोस्त – शेख़ो बिरहमन –दैरो हरम –चार गर – रहबर और सियासत वगैरह हैं –इसके सिवा मयख़ाना और ज़ात –अना और ख़ल्क पर भी शायरों ने सचाई की तह तलक उतर कर तफ़्तीश की है !!!
जिससे मिट्टी की इबादत का सबक़ सीखा था
वो कहानी तो मेरी माँ की सुनाई हुई है
दुनिया में कहीं इनकी तालीम नहीं मिलती
दो चार किताबों को घर में पढा जाता है –बशीर बद्र
मिट्टी की इबादत का सबक – संस्कारगत है और ये दुनिया मे और कही नही सिखाई जा सकती सिवा घर के !!
ख़ाक तमीर मुहब्बत की इमारत होगी
सिर्फ़ कहने के लिए रस्म-अदाई हुई है
मुहब्बत जिया जाने वाला अहसास है – ये वो नग़्मा है जो हर साज़ पर गाया नहीं जाता –लिहाजा ओढी हुई मुहबबत में वो वकार कहाँ जो जिये गये अहसास मे होगा !! शेर पर वाह वाह !!
वक़्त की शाख से कब पत्ता जुड़ा हो जाए
बात हालाँकि अभी तक तो बनाई हुई है
एक शब्द है नियति –यानी जो होना अवश्यम्भावी है वो हो कर रहेगा – आख़िरी पत्ते की उमीद कब तलक !! न इतनी तेज़ चले सिरफिरी हवा से कहो // शजर पे एक ही पत्ता दिखाई देता है –शिकेब
हर तरफ फूल मुहब्बत के खिले हैं नाज़िम
फस्ल ये हमने तस्सव्वुर में उगाई हुई है
बहुत खूब !! सच है !!‘नाज़िम’ नक़वी साहब बहुत खूब शेर कहे हैं ग़ज़ल पर पूरी दाद !! –मयंक
मयंक भाई
किसी भी ग़ज़ल का मज़ा लेना तो कोई आप से सीखे…
हमारे अदब में ऐसा भी हुआ है की शायर अपनी तखलीक़ी परवाज़ पे पर तौलने से पहले कायनात के मलिक के सामने दोनों हाथ जोड़ कर दुआ माँगता था…
मीर अनीस के कुछ मिसरे बे-साखता याद आ रहे हैं…
आपको नज़र कर रहा हूँ…
यारब चमने-नज़्म को गुलज़रे इरम कर
एय अब्रे-करम खुशक़ ज़राअत पे करम कर
तू फ़ैज़ का मब्दा है तवज्जो कोई दम कर
गुमनाम को एजाज़ बयानों में रक़म कर
जब तक ये चमक मेहर के परतौ से न जाय
अक़लीमे-सुखन मेरे क़लम रौ से ना जाय
और ऐसी दुआ के बाद अपने तखलीक़ी सफ़र पर निकलता था… ये अदब की तहज़ीब का हिस्सा था जिसकी परवरिश आज के दौर में मुमकिन नहीं… और जो लोग इसे बारात रहे हैं उनमें यक़ीनन आप हैं. गुफ़्तुगू का अंदाज़ अनीस के ही मिस्रे के बक़ौल-
“बातों में वो नमक कि जबां को मज़ा मिले”
आपने ग़ज़ल की पज़ीराई की बेहद शुक्रिया… आदाब
जिससे मिट्टी की इबादत का सबक़ सीखा था
वो कहानी तो मेरी माँ की सुनाई हुई है
वाह वाह नाज़िम साहब बहुत उम्दा शेर और क्या अच्छी ग़ज़ल …मुबारक
शुक्रिया रश्मि सबा…
आदाब तुफैल भाई
शुक्रिया पज़ीराई का… हम तो बस शेर कहकेर रह जाते हैं लेकिन आप जो काम कर रहे हैं वो बहुत बड़ा काम है…
बहुत खूब गज़ल हुई वाहःहः नाज़िम साहेब
शुक्रिया सीमा जी…
ज़बानो-बयान की ऐसी नुदरत क्या कहने। यूँ तो पूरी ग़ज़ल ही भरपूर है मगर ये शेर तो क़यामत है। हज़ारहा दाद वाह वाह
भूलना क्या था ये तुम भूल गये और इधर
याद है हमको कि एक याद भुलाई हुई है