Mayank Awasthi

T-30/5 उसने आवाज़ छुपाने का हुनर सीख लिया.. मयंक अवस्थी

बाल उलझे हुये दाढी भी बढाई हुई है तेरे चेहरे पे घटा हिज्र की छाई हुई है जैसे आँखों से कोई अश्क़ ढलकता जाये तेरे कूचे से यूँ आशिक की विदाई हुई है मैं बगूला था, न होता, वही बेहतर होता मेरे होने ने मुझे धूल चटाई हुई है ज़लज़ला आये तो उस घर का […]

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गिरही ग़ज़ल

गिरही-ग़ज़ल:- ************* मयंक भाई को जानने वाले जानते हैं कि कमेण्ट्स में फिलबदी शेर कहने के अलावा दीगर शोरा हजरात की पूरी की पूरी ग़ज़ल के सानी मिसरों (second line) को गिरह करते हुये (adding new first line over the original second line and ensuring this does not present parody) एक नयी ग़ज़ल पेश करना […]

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दो ग़ज़लें –मयंक अवस्थी

कच्ची ज़मीनों की ये दोनो ग़ज़लें सन 1998 की हैं , तब मैने एक संयुक्त संकलन “तस्वीरें पानी पर” ( केसरी प्रिंटर्स , किदवई नगर ,कानपुर) से प्रकाशित करवाया था, उससे ली गई हैं। ग़ज़ल -1 दो सदा तो दर खुले ऐसा मकाँ कोई नहीं इस मज़ारों के नगर में हमज़ुबाँ कोई नहीं राब्तों की […]

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शायर “पवन कुमार” का दमदार आग़ाज़ “बाबस्ता”

(ये समीक्षा मैने 4 बरस पहले लिखी गई थी –तब जो पवन कुमार जी से उम्मीद थी वो बिल्कुल सच साबित हुई है , आज वो सुखनफहमी और सुखनगोई में बडे हस्ताक्षर के रूप में स्थापित हैं) –मयंक अवस्थी) प्रकाशन संस्थान 4268-B/3 दरिया गंज नई दिल्ली -110002 जैसी कि मेरी आदत है पुस्तक पढने के […]

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“पाल ले इक रोग नादाँ” – गज़ल संग्रह –ग़ौतम राजरिशी

मैं कई उपमायें सोच रहा हूँ कि क्या नाम दूँ इस किरदार को ?!! “एक आतिशफिशाँ जिसने खुद को ज़ब्त कर रखा है” –“एक सूरज जिसमें शीतलता है” –“एक चाँद जिसमें आँच है” –लेकिन शायद तश्बीहों की असीरी की ज़रूरत नहीं है। मैं अगर सिर्फ कर्नल गौतम राजरिशी ही कह देता हूँ इस किरदार को […]

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“पुखराज हवा मे उड़ रए हैं “ – ग़ज़ल संग्रह –नवीन सी चतुर्वेदी

“पुखराज हवा मे उड़ रए हैं”- यह ग़ज़ल-संग्रह पिछले वर्ष प्रकाशित हुआ और ब्रज –ग़ज़ल को बाकायदा एक रह्गुज़र मिली। ये रहगुज़र अब शाहराह बनने की राह पर है।मुल्के अदब की प्रेम-गली “ग़ज़ल” मे यूँ भी बहुत भीड है रिवायती ग़ज़ल के ऐवानो और जदीद ग़ज़ल के अंगुश्त बदंदाँ कर देने वाले शिल्पों /शाहकारों मे […]

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T-29/11 लानतें बाप की, दुआ मां की- मयंक अवस्थी

बस सितारों का आसरा है मुझे देने वाले ने ये दिया है मुझे क्या कहूं तेरे शाहकारों को तेरा पत्थर भी देवता है मुझे मेरे दरिया !! तेरा हुबाब हूं मैं “अपने अंजाम का पता है मुझे” जबकि छुपकर गुनाह करता हूँ कोई चुपचाप देखता है मुझे लानतें बाप की, दुआ मां की कितने रंगों […]

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दो ग़ज़ले –मयंक अवस्थी

ग़ज़ल –1 फिर भी कद मेरे ही शाइर का बडा रहता है जबकि ये ऊँट पहाडों में खडा रहता है बद्ज़ुबाँ है वो मगर सच भी वो ही कहता है उसकी तलवार में हीरा भी जडा रहता है तू भी ग़ालिब है अदीबों की किसी गुमटी का मेरे दर पर भी कोई मीर खडा रहता […]

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ग़ज़ल — आस्तीनों मे सरक आये हो…..मयंक अवस्थी

ज़हर दिल में है ज़ुबाँ गुड की डली है यारों ये जो दुनिया है बस ऊपर से भली है यारों आशनाई है सियासत के महल से इसकी ये मेरे शहर की बदनाम गली है यारों उसको गुलचीं की निगाहों से न देखा कीजै वो जो खिलती हुई मासूम कली है यारों आस्तीनों मे सरक आये […]

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T-22/34 दर्दे –दिल!! तुझको इनायत कर के ….मयंक अवस्थी

तीरगी !! तुझको बिखर जाना है शब को ताहद्दे सहर जाना है चाँद तारों से हमें क्या हासिल ?!! रात का रूप संवर जाना है आग की राहगुज़र है दरपेश अब मुझे और निखर जाना है ज़िन्दगी!! तेरा मुकम्मल होना उसके कूचे से गुज़र जाना है कब ये पूछा है किसी सूरज ने उसकी किरनों […]

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T-22/3 राह मुश्किल है मगर जाना है –“शरीफ़” अंसारी

राह मुश्किल है मगर जाना है आज हर हद से गुज़र जाना है अब के दरिया जो उतर जायेगा तुम चले जाना जिधर जाना है ज़िन्दगी क्या है बक़ौले नातिक चन्द साँसों का सफर जाना है इश्क की आग मे जलना कैसा ये तो हस्ती का संवर जाना है दिल मे कुछ उसकी निशानी ले कर […]

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ख़ुदा के बाद तुम ही आसरा हो–“समर कबीर”

है किसमें ये सलीक़ा कौन होगा यहाँ इतना अकेला कौन होगा ! ख़ुदा के बाद तुम ही आसरा हो तुम्हारे बाद अपना कौन होगा ! जवानी बे सरोसामाँ है इतनी बुढापे का सहारा कौन होगा ! यहाँ इन्सान ही कितने बचे हैं भला इनमें फ़रिश्ता कौन होगा ! हमें तस्लीम हम एसे नहीं हैं तुम्हारे […]

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तेरे बदन मे और कई खुश्बुयें थीं दोस्त —मयंक अवस्थी

बिस्तर था, हम थे, और हया की क़बा न थी वो उम्र की ख़ता थी हमारी ख़ता न थी क्या क़ुर्बतें थीं जिनमें कहीं गुम थे दो बदन क्या गुफ़्तगू थी जिसमें लबों की सदा न थी जो दर्द शहरे–हिज्र के बासी के दिल में था उस दर्द की दवा तो तुम्हारे सिवा न थी […]

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अन्धेरे में… गज़ल —शरीफ़ अंसारी

चोरी पकडी गई अन्धेरे में किसने की मुख़बिरी अन्धेरे में शहर तक आ गई अन्धेरे में इक हवा सिरफिरी अन्धेरे में लुट गई हर खुशी अन्धेरे में रह गई ज़िन्दगी अन्धेरे में भूखे बच्चों के पोंछ कर आंसू मामता रो पडी अन्धेरे में वो तो अच्छा हुआ कि काम आई आपकी रहबरी अन्धेरे में चाँद […]

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एक मतला , एक शेर –मयंक अवस्थी

1. चाँद पे दाग़ का इल्जाम लगा देते हो किस सफाई से मियाँ काम लगा देते हो जब भी किरदार उठाना हो किसी रावण का तुम कहानी में कहीं राम लगा देते हो **************** 2 मुकाम पाते ही वादे से फिर गया कोई फलक पे जा के भी आँखों से गिर गया कोई बड़ी उदास […]

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T-21/25 -हमारी चाप से क्यों छुप रहे हो चाँद मियाँ …मयंक अवस्थी

जभी तो सच के हैं सदियों से हौसले रौशन कोई फ़कीर कभी दार पर हुये रौशन उदास रात के दामन मे कहकशां बनकर फलक के ज़ख्म सियाही मे हो गये रौशन शबे सफर को उमीदो की रौशनी ही बहुत “कलम संभाल अँधेरे को जो लिखे रौशन” हरिक चराग के नीचे है तीरगी लेकिन गमे –हयात […]

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T-20/42 – कुछ नये ज़ख्म हैं, कुछ दाग़ पुराने है,मगर … मयंक अवस्थी

मेरी सांसे मेरे अशआर सम्हाले हुये हैं मेरे बच्चे मेरा संसार सम्हाले हुये हैं बेलियाकत हैं जो तलवार सम्हाले हुये हैं फिर भी हम सर नही दस्तार सम्हाले हुये हैं चन्द ख़ैरात के अशआर का मतलब ये नही आप अब मीर का दरबार सम्हाले हुये हैं कुछ नये ज़ख्म हैं, कुछ दाग़ पुराने है,मगर मेरे […]

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बधाई नवीन !!!

कहाँ रहे तुम इतने साल आइने शीशे हो गये –नवीन सी चतुर्वेदी नवीन भाई को इस शेर पर इसलिये एक बार फिर बधाई क्योंकि इस शेर के मंज़र पर मैने आज एक और शेर सुना है — शीशा हूँ जिसके परली तरफ ज़ंग है बहुत दुनिया समझ रही है मगर आइना हूँ मैं (??!!) शेर […]

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T-19/4 – जब तेरे गम का कोई तार… मयंक अवस्थी

जब तेरे गम का कोई तार जुडा था मुझसे माँग लेते थे महो-ख़ुर भी उजाला मुझसे जिसकी आँखों मे घटा , जिसके लबों पे सहरा तेरी फ़ुर्क़त ने वो किरदार निकाला मुझसे मैं उसी मोड पे पत्थर सा खडा हूँ कि जहाँ कौन है तू??!! ये मेरे ख्बाब ने पूछा मुझसे दिल ही पत्थर को […]

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T18/10 ये माना जंग मेँ कुछ खसारा …..सिराज फ़ैसल ख़ान

ये माना जंग मेँ कुछ खसारा हो गया है ये कम है, जीतने का सलीका हो गया है कज़ा जैसी चली है हवा अब के चमन मेँ सभी पेड़ों का जड़ से सफाया हो गया है जिसे सब लोग अपने निशाने पर लिए थे उसी का हर कोई अब निशाना हो गया है किसी ने […]

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T18/9 मेरा किरदार अब यूँ बरहना……–मयंक अवस्थी

ग़ज़ल मेरा किरदार अब यूँ बरहना हो गया है मेरे शीशे के घर में उजाला हो गया है सियासी नालियों ने पनाहें बख़्श दी जब जो कल तक केंचुआ था, सँपोला हो गया है चिकोटी काट ली जब,,उसे सूरज ने आकर “अँधेरा तिलमिला कर सबेरा हो गया है” मेरे अहसास पर यूँ कोई आँसू गिरा […]

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अतीत के झरोखे में “तुफैल” साहब

तुफैल साहब एक बार कराची (पाकिस्तान) गये थे वहाँ उन्होंने कुछ मुशायरों और साहित्यिक गोष्ठियों मे शिरकत की। वहाँ के सबसे विख्यात अंग्रेज़ी अखबार डान मे संवाददाता हसन आबिदी ने उनकी उपस्थिति की रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। मित्रो के लिये ये रिपोर्ट उपलब्ध कराई जा रही है कि देखे पकिस्तान वाले तुफैल साहब के बारे […]

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ग़ज़ल – चार –सू जो खामुशी का साज़ है –मयंक अवस्थी

चार –सू जो खामुशी का साज़ है वो कयामत की कोई आवाज़ है तोड़ दे शायद अनासिर का क़फस रूह में अब कुव्वते –परवाज़ है ये धुँधलका खुल के बतलाता नहीं शाम है या सुबह का आग़ाज़ है किसलिये दिल में शरर हैं बेशुमार क्यों ज़मीं से आसमाँ नाराज़ है इंतेहा- ए ज़ब्र करता है […]

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T-17/2 जो साथ चल रहा था वही मोतबर न था — मयंक अवस्थी

जो साथ चल रहा था वही मोतबर न था साया भी तीरगी में मेरा हमसफर न था हर तीर खा लिया था कलेजे पे इसलिए मैं उस जगह घिरा था जहाँ पर मफ़र न था हमराह तीरगी थी हवायें भी थीं बज़िद अपने ही दिल में जोशो-जुनूँ का शरर न था आँखों से लोग जिस्म […]

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दो कवितायें – मयंक अवस्थी

कविता -1 हम पाषाण थे — सृष्टि के संताप कितने हम रहे उर में छुपाये ताप का वर्चस्व था लेकिन नही आँसू बहाये गल न जाते थे क्षणिक सी ऊष्मा में हम समर की हम न थे हिमशैल हम पाषाण थे दृष्टिहीनों ने हमें अविचल कहा था , जड़ कहा था यह नहीं देखा कि […]

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दो गज़लें –मयंक अवस्थी

ग़ज़ल -1 जब भी राहों में मिरी धूप कड़ी रहती है घर में माँ बिन हिले पूजा पे खड़ी रहती है इक तिरी यादे-मुसल्सल है मेरी आँखों में वरना सहरा में कहाँ ओस पड़ी रहती है आशिकी , प्यार, वफ़ा, दर्द, जुदाई, सहरा कितने रंगों में मुहब्बत की लड़ी रहती है वक़्त पे वो ही […]

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बशीर बद्र –एक सवाल

बशीर बद्र जैसे शाइर जिस मुकाम पर हैं वहाँ सिर्फ अभिनंदन , अभिवादन और प्रशंसा के स्वरों में से ही कुछ सफ बाँध कर उन तक पहुँच सकते हैं –उनके प्रशंसक इतने हैं कि बशीर बद्र का विरोध करने वाले स्वर समन्दर में कंकर फेंकने जैसा असर ही पैदा कर सकते हैं – जो विशाल […]

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दो गज़लें –सहर अंसारी

कराची विश्वविद्यालय में उर्दू के अध्यापन से सम्बद्ध सहर अंसारी को –उर्दू , अंग्रेज़ी और भाषा विज्ञान में महारत के कारन जाना जाता है –उनके विचार तंत्र के पास बेहद स्ंश्लिष्ट और वृहद क्षितिज है जिससे जब भी नज़्म या गज़ल नुमाया हुई तो समकालीन साहित्य संवर्ग ने उसे भरपूर आदर और सम्मान दिया जिसका […]

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दो गज़लें –ज़हूर नज़र

ज़हूर नज़र — शाइर बनने के लिये ज़िन्दगी जो कुछ दे सकती है वो ज़हूर नज़र को ज़िन्दगी से भरपूर मिला ! वो कक्षा आठ से आगे नहीं पढ सके , नशेबाज थे और तीन बार आत्महत्या की भी कोशिशें उन्होंने कीं – उनके अन्य रिश्तेदार ऊँचे ओहदों पर थे लेकिन उन्होंने प्रूफरीडर , मिस्त्रीगिरी […]

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दो गज़लें –मयंक अवस्थी

ग़ज़ल -1 सुर्ख़ फूलों सी मेरी नज़्म की तस्वीर हुई मेरी हस्ती मेरे जज़्बात की जागीर हुई तूर पे बर्क़ जो चमकी तो गनीमत ये रही एक लम्हा ही मेरे ख़्वाब की ताबीर हुई सब थे खुशरंग लिबासों में बरहना लेकिन कोई शै जिस्म पहनकर ही महावीर हुई उसको पहचान के तस्वीर जला दी उसकी […]

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शाहिद शैदाई –दो गज़लें

शाहिद शैदाई – मैं वो सब्ज़ा हूँ कि ज़हराब उगाता है जिसे … ग़ालिब ने यह मिसरा शायद शाहिद शैदाई जैसे शाइर के लिये ही कहा होगा …. अपने दौर की सारी तल्ख़ियाँ उनके बयान में नुमाया हुई हैं। लेकिन गौर से पढिये तो इस शाइरी में ज़ख्मों का मुदावा ढूँढ निकालने की एक अदम्य […]

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ग़ज़ल –मयंक अवस्थी

आज तनक़ीद की लहरों में असीरों की तरह फ़िक़्र अपनी है समन्दर में जज़ीरों की तरह रहमते –अब्र का तालिब है फक़ीरों की तरह एक दरिया जो बज़ाहिर है अमीरों की तरह दूर के ढोल समाअत न फना कर दें कहीं उनके आदाब में बजिये न मज़ीरों की तरह गैर-मुम्किन कोई तहरीर दिले-दरिया पर रोज़ […]

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तीन ग़ज़ले —-शरीफ़ मुनव्वर

मध्यम वर्ग हिन्दुस्तान मे भी है और पाकिस्तान में भी – मसाइल भी कमोबेश एक जैसे हैं – शरीफ़ मुनव्वर ने अपना जीवन निम्न मध्यम वर्ग से अरम्भ किया और बाद में अरब में बस गये – उनकी शाइरी उस शिक्षित तबके को बहुत पसन्द आती है जो महत्वाकाँक्षी है लेकिन जिसकी आर्थिक समस्यायें मध्यमवर्ग […]

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ग़ज़ल – मयंक अवस्थी

बम फूटने लगें कि समन्दर उछल पड़े कब ज़िन्दगी पे कौन बवंडर उछल पड़े दुश्मन मिरी शिकस्त पे मुँह खोल कर हँसा और दोस्त अपने जिस्म के अन्दर उछल पड़े गहराइयाँ सिमट के बिखरने लगीं तमाम इक चाँद क्या दिखा कि समन्दर उछल पड़े मत छेड़िये हमारे चरागे –खुलूस को शायद कोई शरार ही , […]

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तीन गज़लें– रशीद क़ैसरानी

रशीद क़ैसरानी – का जन्म 1927 में पाकिस्तान में सराय डेरा ग़ाज़ीखाँ में हुआ था और ये पाकिस्तान ऐयर फोर्स में अधिकारी थे। इनकी गज़लें अपनी मौलिकता के कारन क़्वोट की जाती हैं। रशीद क़ैसरानी के पस एक कैनवास है जिसमें – रेगिस्तान, सूरज, फासले, चाँद, किरन, शहज़ादी, को मंज़र बना कर इनके इनके तख़य्युल […]

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T-16/10 फ़लक है सुर्ख़ मगर आफ़ताब काला है-मयंक अवस्थी

फ़लक है सुर्ख़ मगर आफ़ताब काला है “अन्धेरा है कि तिरे शहर में उजाला है” तमाम शहर का मंज़र ही  अब निराला है कोई है साँप, कोई साँप का निवाला है शबे-सफ़र तो इसी आस पर बितानी है अजल के मोड़ के आगे बहुत उजाला है. जहाँ ख़ुलूस ने खायी शिकस्त दुनिया से वहीं जुनून ने […]

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T/24-मेरा नसीब मुझे कर्बला में लाया है -मयंक अवस्थी

ये आँख मूँद, अकेले में मुस्कुराना क्या तुम्हारे साथ है गुज़रा हुआ ज़माना क्या ग़ज़ल के शेर रक़ीबों को अब सुनाना क्या जो बुझ चुके हैं उन्हें बेसबब जलाना क्या मुझे ये इल्म नहीं था कि ख़ल्क अन्धी है कोई चराग़ अब इस रात में जलाना क्या वो आसमान से गिरता तो हम उठा लेते […]

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मयंक अवस्थी को जन्मदिन की बधाई

इस पोर्टल पर जिन लोगों ने सर्वाधिक काम किया है मयंक अवस्थी उनमें अग्रणी हैं. आज मयंक अवस्थी का जन्मदिन है. मयंक आपको आपके इस लाड़ले लफ़ज़ की तरफ से जन्मदिन की ढेर सारी बधाइयां, शुभकामनायें. यशस्वी होइये, हम सबको जिस तरह गौरवान्वित करते हैं उसमें और चार चाँद लगाइये. प्रगति पथ पर बढ़ते रहिये.

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T-14/25 तू कर ले संग वंग की बरसात ही सही-मयंक अवस्थी

तू कर ले संग वंग की बरसात ही सही पर टूटे आइने की हरिक बात थी सही जब मेरे चुटकुलों पे भी हँसता नहीं था तू क्यों मैने एक उम्र तिरी दोस्ती सही भगवान क्या खुदा से जुदा शै का नाम है ‘अच्छा ये आप समझे है अच्छा यही सही’ हम खुदकुशी की ताब जुटा […]

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T 13/29 मेरे दिल को अपने दिल में रहने दो -मयंक अवस्थी

तनहाई में जाने क्या हो जाता है पत्थर, जैसे आईना हो जाता है मुझमें एक ख़ला ये कहता है अक्सर माटी का तन माटी का हो जाता है सबसे बाँहें फैलाकर मिलते रहिये सिर ऊँचा सीना चौड़ा हो जाता है कुछ तो है उस बेदिल की शख़्सीयत में जो मिलता है दिलदादा हो जाता है […]

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T-12/7 हरिक संग शीशे सा है इन दिनों –मयंक अवस्थी

तनासुब वो रखता है किरदार में रिज़ा भी झलकती है इनकार में यही सोच ले आई है ग़ार में कोई शर्त होती नहीं प्यार में ज़ुबाँ फिर खुली उसकी, फिर ये खुला बहुत धार बाकी है तलवार में हरिक संग शीशे सा है इन दिनों नज़र आता है मुँह भी दीवार में वसूलेगी हफ्ता अभी […]

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यहीं उड़ रहा था वो कुहसार में – ज़ेब ग़ौरी

यहीं उड़ रहा था वो कुहसार में चलो उसको ढूँढें किसी ग़ार में वही एक गौहर पड़ा रह गया वही एक गौहर था बाज़ार में उठी एक मौजे-सराब और मुझे बहा ले गई सब्ज़ अनवार में मिरी दोनों आँखें खुली छोड़ दीं ये कैसा चुना मुझको दीवार में पड़े होंगे औराक़े-दिल भी कहीं इन्हीं ज़र्द […]

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T-11/24 धूप को छाँव किया चाहती है —मयंक अवस्थी

धूप को छाँव किया चाहती है और क्या माँ की दुआ चाहती है ऐसा जुगनू हूँ मैं जिसकी धुन पर कहकशाँ रक़्स किया चाहती है जोंक लिपटी है अबस पत्थर से ज़िन्दगी खून पिया चाहती है लफ़्ज़ भगवान पुराना है बहुत ज़िन्दगी ख्वाब नया चाहती है वो हमें दिल से मुनव्वर न दिखे “जिन चराग़ों […]

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आस्थाओं से सदा….. ….. मयंक अवस्थी

आस्थाओं से सदा इस भाँति यदि लिपटे रहोगे, लघु कथाओं के कथानक की तरह सिमटे रहोगे !! पुष्प बन अर्पित हुये तो पददलित बन त्यज्य होगे , गर बनो पाषाण अविचल पूज्य बन स्तुत्य होगे !! संशयों के शहर में , अफवाह बन जाओ नहीं तो, अर्धसत्यों की तरह न लिखे हुये न मिटे रहोगे […]

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T10/22 -जो मिरी रोशनी है ज़ाती है …मयंक अवस्थी

जो मिरी रोशनी है ज़ाती है दिल दिया है , उमीद बाती है मैं वो पत्थर हूँ जिसमे मुद्दत से साँस आती है साँस जाती है कुछ तो दामनकशाँ हूँ मैं उससे और कुछ ज़िन्दगी लजाती है एक घुड़की जो दी हवाओं ने लौ चराग़ों की थरथराती है चीथड़ा हो गई कोई इस्मत ‘इश्तिहारों के […]

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उतरीं अजीब रोशनियाँ रात ख़्वाब में- शकेब जलाली

उतरीं अजीब रोशनियाँ रात ख़्वाब में क्या क्या न अक्स तैर रहे थे सराब में कब से हैं एक हर्फ़ पे नज़रें जमीं हुईं वो पढ़ रहा हूँ जो नहीं लिक्खा किताब में फिर तिरगी के ख़्वाब से चौंका है रास्ता फिर रौशनी-सी दौड़ गई है सहाब में पानी नहीं कि अपने ही चेहरे को […]

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बेहतर है ख़ाक डालिए ऐसी उड़ान पर-शकेब जलाली

हमजिंस अगर मिले न कोई आसमान पर बेहतर है ख़ाक डालिए ऐसी उड़ान पर आकर गिरा था कोई परिन्दा लहू से तर तस्वीर अपनी छोड़ गया है चटान पर पूछो समन्दरों से कभी ख़ाक का पता देखो हवा का नक़्श कभी बादबान पर यारो मैं इस नज़र की बलंदी का क्या करूँ साया भी अपना […]

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वहाँ की रोशनियों ने भी ज़ुल्म ढाए बहुत- शकेब जलाली

वहाँ की रोशनियों ने भी ज़ुल्म ढाए बहुत मैं उस गली में अकेला था और साए बहुत किसी के सर पे कभी टूटकर गिरा ही नहीं इस आसमाँ ने हवा में क़दम जमाए बहुत हवा का रुख़ ही अचानक बदल गया वरना महक के काफ़िले सहराँ की सिम्त आए बहुत ये कायनात है मेरी ही […]

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प्रीति — मयंक अवस्थी

(एक नज़्म अपनी बहन प्रीति के नाम ..) प्रीति मेरे हक़ में वो इक शम्म: जलती रही रोशनी मुझकों रातों में मिलती रही रच रहे थे अँधेरे नई साजिशें ज़ख्मे-दिल पर नमक की हुईं बारिशें इस कदर था शिकंजे में मैं वक्त के खुदकुशी कर रही थीं मेरी ख्वाहिशें उन खिज़ाओं में नरगिस महकने लगी […]

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T8/26 तअर्रुफ हो न पाया जिंदगी से… मयंक अवस्थी

तअर्रुफ हो न पाया जिंदगी से रही वो दूर ही मुझ अजनबी से मैं शहरे-संग में इक शीश:गर हूँ मुसल्सल लड़ रहा हूँ खुदकुशी से वो ख़ुद इक मौज थी बहरे-फना की तवक़्क़ो थी बहुत जिस जिंदगी से अँधेरे बारहा थर्रा रहे हैं घटाओं में बिफरती रोशनी से वगर्ना कौन इनको देख् पाता सितारे खुश […]

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