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ज़हन बीमार है इनके …….

पिछले कुछ दिनों से नेट की साहित्यिक दुनिया में किसी युवा लेखक के कहानी-संग्रह को भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा नहीं छापने पर बड़ी हाय -तौबा मची हुई है ! तहलका कॉम पर उस युवा लेखक के छपे लेख के हवाले से पता चला की श्रीमान ने ज्ञानपीठ द्वारा गत वर्ष घोषित हुआ नवलेखन पुरस्कार भी लौटा दिया है ! जानकार बड़ी ख़ुशी हुई ,युवा लेखक के प्रति श्रद्धा के भाव भी जागृत हो गये ,जहाँ इस दौर में पुरस्कारों के लिए लोग तरह -तरह के जुगाड़ में लगे रहते हैं वहाँ एक कलंदर अगर मिला हुआ इनआम लौटा रहा है ! एकबार तो लगा कि ये महोदय युवाओं के लिए एक मिसाल हैं और बरबस राहत इन्दौरी का एक शे’र याद आ गया :—
एक हुकूमत है जो इनआम भी दे सकती है
एक कलंदर है जो इनकार भी कर सकता है
जब पूरा लेख पढ़ा तो मालूम हुआ कि इन साहब का कहानी- संग्रह जो ज्ञानपीठ छाप रही थी उसने इन साहब की किसी कहानी में अमर्यादित भाषा या शब्दों के एतराज़ के कारण छापने से मना कर दिया और बस इसी बात से लेखक नाराज़ हो गये ! जब लेखक जी को नवलेखन पुरस्कार देने की घोषणा हुई तब ज्ञानपीठ और उसके पदा-धिकारी बहुत लायक थे ,जब उनकी रचना पे उन्हें एतराज़ हुआ तो सब बुरे हो गये ! मुआमला शीशे की तरह साफ़ है , आप जैसा चाहतें है वैसा होता रहे तो सब ठीक और वैसा ना हो तो सब बेकार !
अब ज़रा इन युवा लेखक की उस कहानी का ज़िक्र करूं जिसे कहानी कह कर शायद मैं कहानी विधा की गरीमा को चोट पहुंचा रहा हूँ ! मैंने उनके किसी मित्र के ब्लॉग पे वो रचना पढ़ी ,पहली दस- बारह पंक्तियों के बाद लगने लगा कि ज्ञानपीठ वालों ने इस रचना की वजह से इन साहब का कहानी -संग्रह ना छाप कर वाकई सही काम किया है ! उस तथाकथित कहानी पे बहुत से लोगों नेअपनी- अपनी टिपण्णी भी दी अगर एक ही लफ़्ज़ में उस रचना के बारे में कहूँ तो सियाही की बर्बादी से बच जाउंगा जो कि इन साहब ने बेशुमार की है और वो लफ़्ज़ है वाहियात ! वो रचना किसी भी ज़ाविये से कहानी नज़र नहीं आती उसमे नज़र आता है तो सिर्फ़ ऐसा लेखन जो रेलवे -स्टेशन /बस स्टैंड पे किताबों की दुकान पे मिलने वाली निम्न -स्तर की अश्लील किताबों में होता है !
बाद में मुझे लगा कि ऐसा लिखने वाले को नवलेखन पुरस्कार कैसे मिल गया और अब ये साहब अगर उसे लौटा चुके है तो इन्होने सच में उस पुरस्कार का सम्मान किया है जो इन्हें ग़लती या किसी मेल-मिलाप की वजह से मिल गया था !
इस दौर के साहित्य का ये दुर्भाग्य है कि ऐसे लेखकों की तादाद दिन ब दिन बढ़ती जा रही है ! दरअसल ये लोग बिना मेहनत के बहुत कम वक़्त में शिखर पे पहुंचना चाहते है और सुर्ख़ियों में रहने के लिए ये लोग तरह- तरह के हथकंडे भी अपना रहें है ! ऐसे स्वयम्भू साहित्यकारों ने अपनी विचार धारा वाले लोगों का एक विशेष समूह बना रखा है जो आपस में एक – दूसरे को प्रोत्साहित करते रहतें है ! इन लोगों में से अधिकतर पत्रकारिता के क्षेत्र से भी जुड़े हुए है !
एक पत्रकार अगर साहित्यकार है तो उसकी ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है परन्तु इन फोटो-स्टेट अदीबों ने साहित्य की संजीदा विधाओं को भी मात्र ख़बर समझ लिया है ! जिस तरह कुछ ख़बरें सनसनी फैलाती है उसी तरह इन्होने साहित्य को भी सनसनी फैलाने का ज़रिया बना लिया है !
इन लोगों के लेखन में वही बू आती है जो राखी सांवत की सिर्फ़ सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए की गई टिप्पणियों में आती है ! अगर अदब नवाज़ लोग इनके अश्लील लेखन की आलोचना करते है तो इन नकली अदीबों का पूरा समूह उन पर एक -साथ टूट पड़ता है ! अपने अश्लील ,घटिया और स्तरहीन लेखन के पक्ष में ये लोग कुछ इस तरह के तर्क पेश करते हैं :- जैसा समाज में हो रहा है वही तो लिखा है , आप को अगर रचना अश्लील लगती है तो ना पढ़ें …वगैराह -वगैराह .. साहित्य में प्रदुषण फैलाने वाले लोगों के ये कुतर्क बड़े तर्क विहीन है ! इन लोगों का लेखन साफ़ – साफ़ दर्शाता है कि इनके पास मुताअले (अध्यन ) की कमी है ! कहानी के नाम पे अपनी विकृत मानसिकता से निकले गन्दगी के अंश परोसने वाले सही मायने में कहानी के मनोविज्ञान से ही वाकिफ़ नहीं है !
इन लोगों को पहले अपने ज़हन की सफाई करवानी चाहिए और फिर मुंशी प्रेम चंद की कोई एक कहानी ठीक से संजीदगी के साथ पढनी चाहिए ! किसी कहानी में एक -एक किरदार का क्या महत्व होता है , कहानी का किरदार पाठक के साथ कैसे जुड़ जाता है,कहानी चाहे कैसी भी हो वो अपने पीछे कोई सबक, कोई सन्देश या कोई सीख ज़रूर छोड़ के जाती है अगर प्रेमचंद की एक भी कहानी इन छपने और शुहरत के शौकीनों ने पढ़ी होती तो ये लोग ऐसा नहीं लिखते जैसा कि लिख रहे हैं !
अपने समूह से मिली झूठी वाह -वाही से इस तरह के लेखकों में आत्म मुग्ध होने की भी नई बिमारी लग गई है ! अगर एक रचनाकार आत्म मुग्ध हो जाता है तो वह स्वयं अपनी रचना की ह्त्या कर देता है ! ऐसे किरदारों को आईना दिखाने वाला मित्र भी दुश्मन नज़र आता है ! जो शख्स ये जानता है कि मैं कुछ भी नहीं हूँ फिर भी अपने आप पे मोहित होना , ये कहना कि मैं बेहतरीन लेखक हूँ , मैं शब्दों का चितेरा हूँ , मैं ये हूँ , मैं वो हूँ ये सब ख़ुद को धोखा देना ही तो है ! इन लोगों के चरित्र मैं अपने एक दोहे से बयान करता हूँ :—
आत्म मुग्ध है लोग जो , बड़े अजब किरदार !
ख़ुद से बोलें झूठ ये , कहाँ किसी के यार !!
लोकप्रियता हासिल करने के लिए अश्लीलता का सहारा लेने वाले इन लेखकों से मेरा बस इतना निवेदन है कि क्या सही है , क्या अश्लील है इसका निर्धारण करने का सब का अलग – अलग पैमाना होता है मगर एक नैतिकता का पैमाना है अगर ये लोग इमानदारी से उस कसौटी पे अपनी रचना को जांच लें तो मैं ये दावे के साथ कहता हूँ इनके अन्दर सो रहा सच्चा लेखक यक़ीनन जाग जाएगा ! वो पैमाना ये है कि अगर अपनी रचना ये अपनी जन्म देने वाली माँ , अपनी बहन ,अपनी बेटी को नज़र मिला के सुना सकते है तो निश्चित तौर पे इनकी रचना खरी है ! जो तख्लीक़ माँ , बहन , बेटी के सामने पढ़ी जा सके वो अश्लील नहीं हो सकती मगर सनसनी फैलाने वाले लेखकों को ये पैमाना भी पसंद नहीं आयेगा !
हमारे इस तरह के युवा लेखकों को एक और मर्ज़ लग गया है वो है साहित्य अकादमियों से पुरस्कार लेने का , सुर्ख़ियों में रहने का और बड़े- बड़े नाम वाली साहित्य पत्रिकाओं में छपने का ! क़लम से राब्ता बनाए चार दिन भी नहीं होते हैं कि ख़्वाब देखने लगते है पुरस्कारों के ,कुछ तो लिखते ही इसी लिए है कि मेरा लिखा विवादों में रहेगा और पुरस्कार मिल जाएगा ! कुछ लोग मेल -मिलाप या किसी जुगाड़ से पुरस्कार लेने में कामयाब भी हो जाते है इसमे प्रतिष्ठित अकादमियां भी कम दोषी नहीं है जो उस कथाकार को भी इनआम से नवाज़ देती है जो अपने लेखन से कहानी की रूह के सर से दुपट्टा तक उतार लेते हैं ! साहित्य अकादमियों को या तो इस तरह के पुरस्कार बन्द कर देने चाहियें या निर्णायक मंडल में ऐसे अदीबों को लेना चाहिए जो इनआम के लिए सही मायने में हक़दार को ही चुने ! भाई मोइन शादाब का एक शे’र है :—
लायक -फायक घर बैठे रह जाते हैं
ऐसे -वैसों को तमगा लग जाता है
साहित्य के नाम पे गन्दगी परोसने वाले इन तथाकथित लेखकों के पास औरत की देह ,औरत -पुरुष सम्बन्ध और सच्चाई के नाम पे गालियों का इस्तेमाल के अलावा कोई विषय-वस्तु ही नहीं है ! विडम्बना तो ये है इनके निम्न स्तरीय लेखन को कुछ महिला लेखिकाएं (जो लेखिकाएं कम इनकी मित्र ज़ियादा है ) भी अपना खुला समर्थन दे रही है ! आधुनिक लेखन के नाम पे ये लोग साहित्य की साख़ को बट्टा लगा रहें है !
इस तरह के लेखकों से मेरा कोई ज़ाती झगडा नहीं है ना मन भेद है पर इनकी दिशा विहीन लेखनी से मैं फ़िक्रमंद ज़रूर हूँ ! ऐसा नहीं है कि इनमे किसी तरह की प्रतिभा नहीं है पर ये लोग साहित्य को उस सिम्त ले जाना चाहते हैं जिसमे किसी का हित नहीं है !सभी साहित्यकारों /अदीबों /अदब के मुहाफ़िज़ों से मेरी यही गुज़ारिश है कि इन लोगों से ज़ाती मरासिम को अलग रखते हुए इनके घटिया लेखन की पुरज़ोर ख़िलाफ़त करें और ऐसे लोगों के नाम अदीबों की फेहरिस्त में शुमार ना करें ! बहुत पहले लिखा अपना एक दोहा याद आया :—-
उल्टा -सीधा जो लिखे ,मत कह उसे अदीब !
सुर्खी,शुहरत के लिए , है सारी तरक़ीब !!
आख़िर में इसी दुआ के साथ कि ईश्वर इनकी क़लम को ऐसी रोशनाई दे जिस से समाज का भला हो और अदब का भी भला हो ……आमीन !
विजेंद्र शर्मा

21 comments on “ज़हन बीमार है इनके …….

  1. खरी-खरी पूरी पुख़्तगी के साथ दोहों और शेरों ने आपकी वाज़िब बात को और वज़न दिया है।
    ईमानदार और बेहतरीन लिखा। लिखते रहिए

  2. bhai tufail….

    intehaee dilchasp aur captivating muzaakra hai…………….note padh liya..ab tamam comments padh ke hi apni rai de paon ga….tab tak….thanks aik achchi tehreer padhwaane ke liyay…shukriya

    • लियाक़त साहब, आपका मशकूर हूँ कि अपने कलाम किया. विजयेन्द्र साहब का ये आर्टिकल ज़ुरूरी इस माने में तो है ही कि ये पूरे अदब पर फैलते जा रहे कूड़े को साफ़ करने की बात करता है. अदब का ज़वाल शुरूअ ही यहाँ से हुआ कि असतिज़ा ने बरसरे-महफ़िल टोकना बंद कर दिया. नतीजतन क़द्रें घटती चली गयीं. हिंदी का हाल देखिये. वहां कोई लबकुशाई करता ही नहीं है नतीजतन छायावाद से मालामाल ज़बान का अदब अब उस मक़ाम पर है कि उसे पढ़ने वाले ही नहीं मिलते.

  3. वैसे तो प्रकरण बहुत पुराना हो चुका है, लेकिन ये आलेख अपने पसंदीदा पोर्टल पर आज पढ़ने का मौका मिला मुझे , तो सोचा कुछ कहूँ| मेरा कुछ कहना कोई मायने तो नहीं रखता, लेकिन एक पाठक हूँ और दंभ करता हूँ अपने इस पाठक होने पर कि सब कुछ पढ़ता हूँ| गौरव सोलंकी निसंदेह रूप से एक अच्छे कवि और कहानीकार हैं और मैंने उनकी हर कविता और कहानियाँ पढ़ी हैं, इसलिए ये बात कह रहा हूँ| आप किसी भी लेखक के बारे में महज उसकी एक रचना पढ़कर राय नहीं बना सकते हैं| जिस कहानी को लेकर ज्ञानपीठ ने आपत्ति उठाई थी, कमाल की बात है कि उसी कहानी को पहले अपने ही प्रकाशन की विख्यात पत्रिका “नया ज्ञानोदय” में जगह दे चुके थे …गौरम का सवाल उठाना इसलिए जायज था कि जो कहानी को वही प्रकाशन पहले ही छाप चुका है उसी को पुनः छपने में आपत्ति कैसी|

    ये आलेख बहुत सारी सटीक बातें कहता है, लेकिन कहीं ना कहीं किसी पूर्वाग्रह से लिपटा भी नजर आता है| किसी भी नए पैर जमाते लेखक के लिए ज्ञानपीठ जैसा नवलेखन पुरूसकार ठुकरा देना अपने आप में बहुत हिम्मत मांगता है … यदि एक नजर में इसे पब्लिसिटी स्टंट मान भी लिया जाये तो भी ये बहुत बड़ा फैसला था, खासकर उस लेखक के लिए जिसने लेखन को ही अपनी जीविका बनाए रखने का निर्णय लिया हो| गौर-तलब हो कि गौरव सोलंकी आई आई टी रुड़की से स्नातक हैं और तमाम जॉब छोड़ कर बस अपने लेखन में लिप्त हैं| हिन्दी लेखन से कितनी कमाई होती है, ये तो जग-जाहिर है| ऐसे में साठ हजार का इनाम ठुकराना अपने-आप में लेखक के लिये बहुत कुछ कहता है | ये महज उसूल की लड़ाई थी, जो गौरव की जगह कोई भी सच्चा लिखने वाला करता …!!!!

    • गौतम साहब, किसी लेख का ज्ञानोदय में छपना और ज्ञानपीठ से प्रकाशित होना दो अलग चीज़ें भी हो सकती हैं. नया ज्ञानोदय में लेख का प्रकाशन होना संपादक की इच्छा का विषय है और ज्ञानपीठ से पुस्तक छापना अलग निर्णायक मंडल का निर्णय. ये इस तरह है की lafzgroup .com पर बेसिक मानकों पर ठीक होने वाला कलाम आता है किन्तु लफ्ज़ पत्रिका में अधिक सावधानी बरती जाती है कि ये साहित्य के इतिहास के अंग बनाने की प्रक्रिया है.ग्रुप पर पोस्ट की गयी हर चीज़ का लफ्ज़ पत्रिका का हिस्सा नहीं बनाया जाना एक गंभीर निर्णय है. वहां भी शायद ये दो अलग बातें हैं.
      श्री गौरव सोलंकी के लेख को पढ़ने के बाद ही विजयेन्द्र जी का लेख पोस्ट किया गया था. श्री गौरव सोलंकी के लेख की तुलना शायद निर्विवाद रूप से स्वर्गीय मनोहर श्याम जोशी के समकालीन सर्वश्रेष्ठ वाहियात उपन्यास हमज़ाद से कि जा सकती है. वो इतना बेहूदा है कि वाहियात बोलने-लिखने में प्रवीण श्री मुद्रा राक्षस, श्री राजेंद्र यादव भी इसे पूरा नहीं पढ़ पाए.गौरव निसंदेह अच्छे लेखक होंगे मगर ये रचना उनकी ख़राब रचना है. कसौटी शायद ये होनी चाहिए कि जिस रचना को हम अपने बच्चों को नहीं पढवा सकते वो उपयुक्त नहीं है.
      रहा सवाल श्री गौरव सोलंकी के आइ.आइ.टी के स्नातक होने के बाद लेखक बनने का निर्णय,तो क्या ये कोई स्तुति का विषय है ? इस घटना को एक पुरानी बात के आलोक में देखिये. सामान्यतः कहा जाता है कि स्वर्गीय श्री हरि शंकर पारसाई जी ने विवाह नहीं किया था और अपनी विधवा बहिन और उनके परिवार की देख-भाल में जीवन बिता दिया. तथ्य ये है कि उन्होंने दो बार विवाह का प्रयास किया था किन्तु संभवतः उनकी प्रसिद्द भयानक मद्यपान की आदत के कारण विवाह हो नहीं पाया. एक ही शहर में भाई-बहन दोनों रहते थे. कहीं तो खाना खाना होता सो बहिन के परिवार के आश्रित रहे.उसमें त्याग जैसा कुछ नहीं था.

      • सवाल उठाने वाली बात यहीं, इसी बात से तो पैदा हुई सर कि गौरव की कहानियों की पांडुलिपी को बकायद तीन सदस्यों वाली निर्णायक मंडली ने ज्ञानपीठ नवलेखन के लिए और ज्ञानपीठ से प्रकाशित करने के लिए अनुशंसित किया था| ये मंडली हर साल की तरह न्यूट्रल लोगों की थी, जिसमें श्री नामवर सिंह जी भी शामिल थे| “नया ज्ञानोदय” पत्रिका के संपादक श्री कालिया जी ने ही गौरव की तथा-कथित विवादित कहानी अपनी पत्रिका में छापी थी और बाद में वो खुद उस कहानी को सेंसर करके छापने की बात करने लगे, जब बात पुस्तक प्रकाशित होने की आई|

        ….और फिर बात घूम-फिर कर ये भी आती है कि मंटो का अश्लील साहित्य क्लासिक का दर्जा पा जाता और आज का युवा ऐसा कुछ लिखे तो भृकुटियाँ टेढ़ी होने लगती हैं|

        …बात अगर रेगुलर जॉब छोड़ कर लेखक बनने के निर्णय -और वो भी हिन्दी भाषा का लेखक तो कम-से-कम मेरे लिए तो अवश्य स्तुति का विषय है ये सर| …और निश्चित रूप से गौरव सोलंकी द्वारा ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरुसकार को ठुकराना और अपनी पहले ही इसी प्रकाशन से छप चुकी कविताओं के संकलन का अधिकार वापस लेना काबिले-तारीफ की बात है| it needs guts and the boy has it for sure 🙂

        • साहबज़ादे ज्ञानपीठ अगर अपने किसी निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहता है तो इसमें आपत्ति क्यों है.मेरे विचार से मुद्दा सिर्फ़ इतना है कि उन्होंने एक ख़राब रचना को पुस्तक के रूप में छपने की बात आने पर उसे एडिट करना चाहा. किसी अन्य संस्थान से छापने पर एतराज़ थोड़े ही है. उनका कहीं और प्रयास करना उपयुक्त होगा. गौरव सोलंकी जी ने रेगुलर जॉब छोड़ा और लेखक बनने का निर्णय लिया ये उनका निजी विषय है इसमें निंदा स्तुति कहाँ से आ गयी. भारत केवल एक विषय को महत्ता और सम्मान देता है कि किसी व्यक्ति के काम से समष्टि का हित हो. इसे इस तरह से देखें कि हम सब जिन कार्यों को भी करते हैं उनसे हमारे हित जुड़े होते हैं. चाहे व्यापार हो या सेवा. फिर भी कुछ कार्य ऐसे हैं जो अतिरिक्त सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं. जैसे सेना के लोगों को समाज तुलनात्मक रूप से अधिक सम्मान की दृष्टि से देखता है. यूँ तो सैनिक वृत्ति ही कर रहा होता है और उससे अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करता है.फिर भी समाज एक व्यापारी की तुलना में उसे अधिक सम्मान देता है. कारण वही है कि सैनिक का कार्य व्यक्तिगत वृत्ति हो कर भी समष्टि का हित साधता है. कृपया मुझे बताइये एक सामान्य कार्य को छोड़ कर दूसरा काम पकड़ लेना कैसे महत्ता का विषय कैसे हो गया ?
          मंटो का लेखन क्लासिक शायद हो मगर कालजयी कदापि नहीं है. उनकी चार-छह चीज़ें ही हैं और अब उसे पाठक नहीं मिलते बल्कि उनके अपने काल में भी वो मुक़द्दमों के कारण चर्चित ज़ुरूर थे मगर पाठक तब भी बहुत नहीं थे. जितनी किताबें उनकी बिकती हैं इस्मत आपा कहीं अधिक पढ़ी जाती हैं. ये भद्दी बात है मगर चर्चा आई है तो बताता चलूँ, ठाकुर नामवर सिंह जी के बारे में एक सर्वमान्य तथ्य ये भी है कि अगर किसी के नाम के आगे सिंह लगा होता है तो नामवर सिंह जी उसके हितैषी होते हैं.

  4. AGAR NAM LE KE SACH KEHENE KI HIMMAT NAHI HAI TO AISE BATE CHUGALKHORI KAHI JAIGI

    • आप ठीक कह रहे हैं. विजयेन्द्र साहब को इसके लेखक श्री गौरव सोलंकी का नाम स्पष्ट करना चाहिए था

  5. हिन्दी के साहित्यकार, साहित्यकार कम मौलिकता के ठेकेदार अधिक लगते हैं |

  6. इस आलेख ने ज़रूरी पहलुओं पर विचार करने का निमंत्रण दे दिया है

  7. Sabi agrajon ko naman
    Navodit lekhan ke baare mein ye lekh padh kar achha laga. halanki main isi nayi peedhi mein shumaar hota hoon, aur lekh padhkar gussa bhi aaya, lekin aapki baat sahi hai. Lekhak/shayar kehlaane ke liye jod tod karte logon ko dekha hai.
    Mera ek prashn hai Sir. Aapne samasya ka bohot achha vishleshan kiya hai, lekin kya aapki nazar mein is rog ka koi ilaaj bhi ho sakta hai. Lagbhag har gali mein ek ‘sahityik sanstha’ hai jahan aap “varshik anudan” deke “padadhikari” ban sakte hain. Aise mein kya kiya jaaye???
    Aapna
    Vishal Bagh

    • विशाल साहब साहित्यिक संस्था बनाने का कारण होता ही ये है कि सब मिल कर मुझे अध्यक्ष बना दो और मेरी रचनाओं को सुन कर वाह-वाह करो. रचना कर्म करते ही वो लोग हैं जिन्हें अपने-आप को ज़ाहिर करने का, मनवाने का लपका होता है. हम सब कभी न कभी ये कर चुके हैं. कुछ वहीँ रह गए, कुछ ने मंजिलें मार लीं. इसका कोई इलाज मेरे ख़याल में तो नहीं है हाँ अश्लील लेखन का इलाज शाब्दिक/मानसिक/शारीरिक धुलाई है. यही हम लोग जहाँ तक हमारी मार है,कर रहे हैं. एक निवेदन करना चाहूँगा. लफ्ज़ पर रजिस्ट्रेशन कर लीजिये. इससे आपकी फ़ोटो भी आ जाएगी और आपका नाम अज्ञात नहीं दिखेगा. नवीन का नंबर 09967024593 है, उनसे बात कर लीजिये, वो आपको गाइड कर देंगे

  8. मैंने भी वो कहानी पढ़ी.. जिस लेखक का नाम लिया जा रहा है वो शायद गौरव सोलंकी हैं. मुझे कहानी कुछ खास नहीं लगी. मैं तो आधी कहानी में ही बोर हो गया.

  9. साहित्य की दुनिया में हमेशा स्तर-स्तरहीन, श्लील-अश्लील को ले कर विवाद रहा है. मंटो, इस्मत चुगतई, सरदार पंछी, मनहर श्याम जोशी जी का हमज़ाद जैसे हर भाषा में हुए हैं. ये बात भी है कि समाज आज जिसे अश्लील कह रहा है कल वो सामान्य भी हो सकता है. एक समय में
    जिस मोहल्ले में था हमारा घर
    उसमें रहता था एक सौदागर
    को अश्लील समझा जाता था हम लोग जब स्कूल में आये तो मस्तराम की बकवास सर्वमान्य, सर्वस्पर्शी, सर्वव्यापक अश्लील साहित्य थी. कहा जाता है कि फ़ारूक़ अर्गली साहब इस कूड़े के रचयिता थे बल्कि हैं. हैं इस माने में कि उस मॉल की खपत तो नहीं रही मगर अर्गली साहब अभी दिल्ली आबाद किये हुए हैं. उसके बाद अंग्रेजी की चीज़ें आयीं. इन्टरनेट ने इन सब का बाजा बजा दिया.इस मॉल का ख़ज़ाना इंटरनेट पर इतना है कि बाक़ी हर दुकान का मॉल बिकना बंद हो गया. कुछ लोग इस सब को उचित और जीवन का अनिवार्य अंग मान-मनवा सकते हैं मगर ये तथ्य है कि इन चीजों का उपयोग अपनी मां, बहन, बेटी के साथ नहीं होता. हर व्यक्ति इन चीजों को देखता-पढ़ता है मगर ये सब कामुकता जगाने के लिए ही होती हैं. बकौल श्रीलाल शुक्ल जी ‘ स्नानागार या बेडरूम में कमर लपलपाते घूमते हैं’.अब आप के हाथ में सिर्फ ये तय करना रह जाता है कि आप इन सब चीज़ों को परिवार के साथ बांटना चाहते हैं या नहीं ? आपकी राय मेरी जानकारी में इज़ाफ़ा करेगी?

  10. दिल वो दरवेश है जो आँख उठाता ही नहीं
    उसके दरवाज़े पे सौ अहले-क़रम आते हैं – बशीर बद्र
    न सूर न तुलसी न कबीर और न मीरा , दादू , नानक, रैदास कोई भी पुरस्कारों के लिये कविता नहीं करता था –लेकिन साहित्यकारों के अध्ययन के लिये आज भी सबसे महत्वपूर्ण यही नाम हैं – साहित्य में आपकी उपस्थिति का कोई कारण अवश्य होगा –यह कारण साहित्यकार की नैसर्गिक साहित्यिक अभिरुचि के अलावा – साहित्य को आधार बना कर सामाजिक आर्थिक महत्ता अर्जित करने के प्रयासों के दायरों में देखा जा सकता है – ठीक वैसे ही जैसे राजनीतिज्ञ का तर्क होता है देश की सेवा लेकिन मंतव्य हम आप जानते ही हैं – वैसे ही साहित्य भी आज हो गया है – सरकारी संस्थान – पुरस्कार – मीडिया कवरेज – सेमीनार – गोष्ठियाँ – मुशायरे – मंच – यह सब नाम दाम का आकर्षण रखते हैं –इसलिये एक बड़ा वर्ग उन रास्तों को सदैव तलाशता रहता है जिस पर चल कर इन संसाधनों का लाभ उठाया जा सके – जैसे समर्पित संत कुम्भन्दास को सीकरी से मतलब नहीं था – वैसे ही समर्पित साहित्यकार जयशंकर प्रसाद कभी किसी कवि सम्मेलन मे नहीं गये –लेकिन उनका साहित्य सभी जानते हैं कि अमर है – साहित्य का सेवा पक्ष और मेवा पक्ष दोनो खुले हैं – विजयेन्द्र भाई !! कमलेश्वर – राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह – नाम तो ये साहित्यकारों के हैं लेकिन दिल्ली में ये नाम किसी भी माहिर राजनीतिज्ञ से अधिक हैसियत वाले गिने गये —साहित्य वो सड़क थी – जिस पर चल कर इनका राजनीतिज्ञ परवान चढा – अच्छा और सच्चा सहित्यकार राजनीतिक गलियारों में नहीं मिलेगा –हाँ विवादित और चर्चित किरदार वहाँ अवश्य मिलेंगे – इसलिये – मेरा मशवरा तो यही है –कि आगे भी हम अच्छे और सच्चे साहित्य और साहित्यकारों को ही महत्ता दें और पब्लिसिटी के लिये शोर मचाने वाले कथित साहित्यकारों को या तो नकार दें या उनसे तटस्थता बरतें ।
    एक और बात यह कि आपका — यह आलेख बहुत असरदार है आपके क़लम को सलाम ।
    – शुभकामनाओं सहित –मयंक

  11. मैं “आपके लेख से पूर्णतया सहमत हूँ….इस दिशा में कोई भी कुछ नही कर रहा है और हमारी संस्कृति दिन-बी-दिन दूषित होती जा रही है…अगर हम सिनेमा की ही बात करें तो आजकल बन ने वाली फिल्मों युवाओं या देश को कुछ नहीं दे पा रही हैं…..ऐसा जान पड़ता है जैसे हम अपने देश में नहीं विदेश मैं बैठे कोई ३ एक्स सिनेमा देख रहे हों…हिमेश रेशमिया का कोई भी गाना यदि टी वी में आ रहा हो तो ये समझ लीजिये कि उसमे वो हीरोइन के होठों का चुम्बन तो ज़रूर ही लेगा….फिर आप क्या करेंगे सिवाय चेनल बदलने के….कहाँ है हमारा सेंसर बोर्ड.. जब वहां ये सब हो रहा है तो प्रिंट साहित्य में अश्लीलता रोकने वाला कौन है….? लिहाज़ा मैं आपके लेख से पूर्णतया सहमत हूँ. कि- जेहन बीमार है……..
    राजेश कुमार भटनागर

  12. dhanyawad bandhu .
    abhi maine bhi ek naye lekhak ko pdha adhoore ant ki shuruaat ..bimlesh tripathi ..meri pratikriya thi ki kahani me lekhakiya dakhal jyada hai jisse kahani kahani kum lekhak ki baqwas jyada hai
    ..mere mitro ne kha yar tum aisi khatarnaq tippadiyo se lekhak ko protsahit nahi kar sakte atah chup rho wo ek bda lekhak hai ..
    purskrat bhi …poore sangrah ki ek bhi kahani nhi jo kal tak bhi yad rhe ..

    • शैलेन्द्र साहब आप सही फर्मा रहे हैं. आखिर कचरे को क्यों स्वीकार किया जाये ? किसी थर्ड क्लास के छात्र को नकल या अन्य साधन से फर्स्ट आते देख कर आँखें बंद करना, फर्स्ट क्लास लाने के लिए किये जाने वाले परिश्रम के साथ अन्याय है. ऐसी ही एक विभूति कमलेश्वर हैं. उनका उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ कोई भी पूरा पढ़ सके तो उसे पठन का परम वीर चक्र मिलना चाहिए. मैंने तो 8-10 पन्नों के बाद खुद को कायर मान लिया था

      You are right Shailendra sahab. Why should we accept garbage. If a student of 3rd grade gets 1rst class by copying or some other means, one should not close eyes. It is injustice to that student who is working hard to get 1rst class.One such personality is Kamleshwar.If somebody reads his novel ‘Kitne Pakista’ fully, must get Param Vir Chakra for it. After 8-10 pages I accepted, I am a coward and dumped the book

  13. वर्तमान समय के अधिकांश लेखन के विषय में अत्यंत सारगर्भित और विचारणीय लेख…

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