दिन रात जाने कैसे बला में लगा रहा
मैं ज़िन्दगी तिरी ही दवा में लगा रहा
सबको लुटा रहा था ये उम्मीद का समर
इक पेड़ था जो मेरी दुआ में लगा रहा
था उसको शौक़ ज़ख़्म लगाने का दोस्तो
मैं उम्र भर सभी की शिफ़ा में लगा रहा
ज़ालिम ने उँगलियों में मिरा घर बना लिया
मेरा क़लम तो हम्दो-सना में लगा रहा
कल हो रहे थे क़त्ल ये हमसाये जब मिरे
मैं अपनी ज़िन्दगी से वफ़ा में लगा रहा
किसने वो आसमान में कचरा गिरा दिया
इक दाग़ था जो सारी हवा में लगा रहा
ज़ंजीर को ही घुंघरू समझ कर तमाम उम्र
इक शख़्स अपने रक़्से-वफ़ा में लगा रहा
दीदार हो सका न सलाख़ों से चाँद का
बस इश्तिहारे-ईद फ़िज़ा में लगा रहा
ये ख़ाकसार पहले तो कुछ भी न था हुज़ूर
पैग़म्बरी मिली तो अना में लगा रहा
हर लम्हा बुझ रहा था वो चेहरा मरीज़ का
तीमारदार अपनी शिफ़ा में लगा रहा
उस शख़्स को ही मुझसे मुहब्बत थी बेमिसाल
जो शख़्स दुश्मनी की अदा में लगा रहा
इस दौर में तमाम ज़बानें बदल गयीं
हर लफ़्ज़ अपनी-अपनी फ़ना में लगा रहा
पानी की दोस्ती ही ढलानों से हैं फ़क़त
ऊंचाइयों से ये भी दग़ा में लगा रहा
मजबूर करने वाले नज़र से छुपे रहे
हर ख़ुदकुशी का दाग़ ख़ला में लगा रहा
कुछ इस तरह से उसकी मुहब्बत बनी रही
पासंग जैसे कोई तुला में लगा रहा
हर रात वो भी दर्द से टूटा है बार-बार
हर रात मैं भी आहो-बुका में लगा रहा
दिनेश कुमार स्वामी ‘शबाब’ मेरठी 0999722102
दिन रात जाने कैसे बला में लगा रहा
मैं ज़िन्दगी तिरी ही दवा में लगा रहा
मौत का भी इलाज हो शायद
ज़िन्दगी का कोई इलाज नहीं –फ़िराक़
गलत नहीं समझा शाइरों ने इस वक्फ़े को और इस मरहले को जिसका नाम ज़िन्दगी है !!! एक कबा जिसे रूह ओढे हुये है वो है बदन और एक ववा जिसे दोनो बर्दाश्त कर रहे हैं वो है ज़िन्दगी !!!! वाह वाह शबाब साहब वाह !! मतले पर दाद !!!
सबको लुटा रहा था ये उम्मीद का समर
इक पेड़ था जो मेरी दुआ में लगा रहा
सर्वे भवंतु सु:खिन: !!! गो कि आज ये खामाख्याली के सिवा कुछ भी नहीं लेकिन चूँकि दुनिया अभी भी आबाद है इसलिये तय है कि कुछ लोग ऐसे हैं जिनके सोच में उमीद का समर लुटाने वाला पेड है!!
था उसको शौक़ ज़ख़्म लगाने का दोस्तो
मैं उम्र भर सभी की शिफ़ा में लगा रहा
अपना अपना कारोबर अपना अपना रोज़गार है सबके पास !!!
ज़ालिम ने उँगलियों में मिरा घर बना लिया
मेरा क़लम तो हम्दो-सना में लगा रहा
उँगलियों में मिरा या उंगलियों में मिरी ???!! मिरी पर बत बनती है !!
कल हो रहे थे क़त्ल ये हमसाये जब मिरे
मैं अपनी ज़िन्दगी से वफ़ा में लगा रहा
अब ज़ियादा बेपरवाही है शबाब साहब वगर्ना आज से 55 बरस पहले का बयान ये था — देख कर अपने दरो बाम लरज़ जाता हूँ
मेरे हमसाये में जब भी कोई दीवार गिरे –शिकेब
किसने वो आसमान में कचरा गिरा दिया
इक दाग़ था जो सारी हवा में लगा रहा
किस्ने गिरा दिया हिरोशिमा और नगासाकी में कचरा !! कामरेड पूछ रहे हैं हा हा !!!!
ज़ंजीर को ही घुंघरू समझ कर तमाम उम्र
इक शख़्स अपने रक़्से-वफ़ा में लगा रहा
वाह वह अन्दाज़ बदल गया लेकिन खूब लुत्फ दिया इस शेर ने –बेबेसी और समर्पण दोनो अरूज़ पर आ गये !1
ये ख़ाकसार पहले तो कुछ भी न था हुज़ूर
पैग़म्बरी मिली तो अना में लगा रहा
सच है और ये भी सच है –कि हरिक जुगनू बयाबाँ मे सितारा बन के रहता है !! तनहाई मे अना की परवरिश भी कैसे हो सकती है मालिक !!!!
उस शख़्स को ही मुझसे मुहब्बत थी बेमिसाल
जो शख़्स दुश्मनी की अदा में लगा रहा
तस्लीम !!!!! मेरे जैसा खुश्किस्मत कहाँ जिसके बेशुमार अदाकार दुश्मन है !!!
इस दौर में तमाम ज़बानें बदल गयीं
हर लफ़्ज़ अपनी-अपनी फ़ना में लगा रहा
शब्द का भी जन्म होता है जवानी होती है और म्रत्यु भी होती है !! दौर के अहसास और युगबोध शब्द की सत्ता और नियति बदल देते हैं !! मैने भी गुरू शब्द के गुण्धर्म को अपने वक़्त मे बदलते देखा है !!!
मजबूर करने वाले नज़र से छुपे रहे
हर ख़ुदकुशी का दाग़ ख़ला में लगा रहा
देखना सब रक़्से बिस्मिल में मगन हो जायेंगे
जिस तरफ से तीर आया है उधर देखेगा कौन –फराज़
कुछ इस तरह से उसकी मुहब्बत बनी रही
पासंग जैसे कोई तुला में लगा रहा
वाह !! वाह!! इस्का हम्ख्याल एक शेर बशीर का — वो जैसे सर्दियों में गर्म कपडे दें फकीरों को
लबों पर मुस्कुरहट सी मगर कैसी हिकारत सी –बशीर
हर रात वो भी दर्द से टूटा है बार-बार
हर रात मैं भी आहो-बुका में लगा रहा
आग दोनो रतफ से थी न !! इसीलिये !!
शबाब’ मेरठी साहब !! क्या बात है जिस ज़मीन से एक कतरा भी निकालना मुश्किल था उससे आपने आबशार निकाल दिया !! वाह वाह क्या बात है तलियाँ !!—मयंक