बद्ज़न था, फिर भी यादे-ख़ुदा में लगा रहा
दिल आख़िरश तो हम्दो-सना में लगा रहा
लाफ़ानी थी तलब तो थी रहमत भी बेकराँ
मैं मांगने में और वो अता में लगा रहा
दुनिया को सीधी राह पे लाता तो लाता कौन
हर शख़्स क़ौम का तो रिया में लगा रहा
मज़हब भी बेच डाला जहां के ख़ुदाओं ने
इस तीरगी का दाग़ ज़िया में लगा रहा
वो जानता था ज़हर है मुझ को हर इक इलाज
फिर भी मेरा तबीब दवा में लगा रहा
अय्यारियों ने धोने की कोशिश तो ख़ूब की
इंसानियत का ख़ूँ प नफ़ा में लगा रहा
सन्नाटे रेज़ा रेज़ा हुए तीरा रात के
जाने ये कौन आहो-बुका में लगा रहा
सूरज की रौशनी में जो घुलने की आस थी
आख़िर तक इक सितारा ख़ला में लगा रहा
मक़बूलियत की गो कोई उम्मीद तो न थी
“मैं उसके साथ साथ दुआ में लगा रहा “
“मुमताज़” फिर खुलूस मेरा देखता भी कौन
बुहतान का जो मैल रिदा में लगा रहा
मुमताज़ नाज़ां 09167666591
सूरज की रौशनी में जो घुलने की आस थी
आख़िर तक इक सितारा ख़ला में लगा रहा
मक़बूलियत की गो कोई उम्मीद तो न थी
waahumtaaz ji
“मैं उसके साथ साथ दुआ में लगा रहा “
“मुमताज़” फिर खुलूस मेरा देखता भी कौन
बुहतान का जो मैल रिदा में लगा रह
waaah waah
बद्ज़न था, फिर भी यादे-ख़ुदा में लगा रहा
दिल आख़िरश तो हम्दो-सना में लगा रहा
कमाल है आपा !! क्या खूब बात निकाली है –अल्टी मेटली दिल को हज़ार मरहले सर करने के बाद भी इसी मंज़िल पर आना है वाह वाह !!! और बद्जन लफ़ज़ का क्या खूब इस्तेमाल किया इससे मतले का वकार क्या बहुगुणित हुआ है !!
लाफ़ानी थी तलब तो थी रहमत भी बेकराँ
मैं मांगने में और वो अता में लगा रहा
सिंगर्स पैराडाइज़ !!! आप ऐसे शेर किस खूबी से कह लेती हैं !!!
दुनिया को सीधी राह पे लाता तो लाता कौन
हर शख़्स क़ौम का तो रिया में लगा रहा
इस रियाकारी को समझ नहीं पाते हम हर तेज रौ को इसीलिये रहबरी मिल जाती है फिर वो पने हासिल के साथ आगे निकल जाता है और अवाम पीछे !!!
मज़हब भी बेच डाला जहां के ख़ुदाओं ने
इस तीरगी का दाग़ ज़िया में लगा रहा
सानी मिसरे की गढन पर भरपूर दाद !! ज़िया में दाग़ का मंज़र मैने बेहद कम सुना है !!!
वो जानता था ज़हर है मुझ को हर इक इलाज
फिर भी मेरा तबीब दवा में लगा रहा
एक शेर याद आया इस सिल्सिले में –
ज़हर वो देता तो सबकी नज़र में आ जाता
सो यूँ किया कि मुझे वक़्त पे दवायें न दीं
अय्यारियों ने धोने की कोशिश तो ख़ूब की
इंसानियत का ख़ूँ प नफ़ा में लगा रहा
मुझे ये शेर अस्पष्ट लगा है –मेरी सामर्थ्य से आगे इसके मआनी है वाह क्या बात है !! दोनो मिसरों पर दाद !!!
सन्नाटे रेज़ा रेज़ा हुए तीरा रात के
जाने ये कौन आहो-बुका में लगा रहा
हमारी ही खामुशी है जो स्न्न्नाटों की यलगार से आहो बुका बन गई !!!
सूरज की रौशनी में जो घुलने की आस थी
आख़िर तक इक सितारा ख़ला में लगा रहा
यही सुबह का तारा है !!!
जो तुम कहो तो शबे गम को ज़रा और बढा दूँ
मेरे कहे में सुबह का तारा है इन दिनों –कतील शिफाई
मक़बूलियत की गो कोई उम्मीद तो न थी
“मैं उसके साथ साथ दुआ में लगा रहा “
नया रंग है इस शेर में !! दाद !!
“मुमताज़” फिर खुलूस मेरा देखता भी कौन
बुहतान का जो मैल रिदा में लगा रहा
मेरे इल्म की रसाई इस शेर की सरहद पर ठहर गई है !!
मुमताज़ नाज़ां : आपा !! गज़ल पर भरपूर दाद !! –मयंक
nafaa ka lafz aksar vyaapar ke saath mansoob hota hai, yaani profit, aaj kal bazaarikaran ke daur men jis tarah yen ken prakaren log profit kamaane men lage hain, aur dikhaave ke liye trust aur social organization banaae jaa rahe hain mera wahi matlab tha, lekin shayad main baat ko thik se keh nahin saki
bohtan kehte hain jhoote ilzaam ko, aur rida maani chaadar
मुमताज़ जी
उम्दा ग़ज़ल हुई है ।
मुबारक़बाद
सादर
पूजा
सन्नाटे रेज़ा रेज़ा हुए तीरा रात के
जाने ये कौन आहो-बुका में लगा रहा
क्या अच्छा शे’र है मुमताज़ साहिबा..
दाद क़ुबूल कीजिये.
Mumtaaz Saheba; kya badhiya gazal hai. Khaas taur par maqta,
“मुमताज़” फिर खुलूस मेरा देखता भी कौन
बुहतान का जो मैल रिदा में लगा रहा
Daad kubul farmaye…
Sannaate reza reza huwe teera raat ke
jaane ye kaun aaho-buqa men laga raha
khoob kaha hai Mumtaaz Naazaa’n sahiba MUBAARAK BAAD
आदरणीया मुमजाज़ जी,
बहुत अच्छी ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद कबूल करें।
बहुत खू़ब कहा…।
सादर
नवनीत
मुमताज़ नाज़ां जी बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है अौर इस शेर का तो जवाब ही नहीं
सन्नाटे रेज़ा रेज़ा हुए तीरा रात के
जाने ये कौन आहो-बुका में लगा रहा
वाह वाह बहुत मुबारकबाद
मज़हब भी बेच डाला जहां के ख़ुदाओं ने
इस तीरगी का दाग़ ज़िया में लगा रहा
khuub
वो जानता था ज़हर है मुझ को हर इक इलाज
फिर भी मेरा तबीब दवा में लगा रहा
bahut achi gazal hui mumtaz ji
dili daad qubul kijiye
Regards