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ग़ज़ल:- इक हरे ख़त में कोई बात पुरानी पढ़ना-दिनेश नायडू

इक हरे ख़त में कोई बात पुरानी पढ़ना
कितना मुश्किल है किसी आँख का पानी पढ़ना

कुछ न कुछ सोचना बस सोचना यूँ ही दिन भर
और फिर रात में परियों की कहानी पढ़ना

एक ही चेहरे की बौछार है क़िस्सा अपना
मेरी आँखों से इसे दुश्मने-जानी पढ़ना

कूद जाना तिरी यादों के समंदर में फिर
डूबते डूबते मौजों की रवानी पढ़ना

आखिरी बार मुझे देखना जाते जाते
सूखी आँखों से मिरा सैले-मआनी पढ़ना

मैंने इक दौर का सावन है किया नज़्म यहाँ
तू कभी आ के मिरी आँखों का पानी पढ़ना

दिनेश नायडू 09303985412

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8 comments on “ग़ज़ल:- इक हरे ख़त में कोई बात पुरानी पढ़ना-दिनेश नायडू

  1. Dinesh…. kamaal ki ghazal hai… saare sher umda hue hain… infact ab ye umeed jag gayi hai ke tum kahoge to umda hi kahoge… jio….

  2. क्या कहने दिनेश भाई..
    कमाल की ग़ज़ल.

  3. मैंने इक दौर का सावन है किया नज़्म यहाँ
    तू कभी आ के मिरी आँखों का पानी पढ़ना
    Bahut achi gazal hui bhaia
    dili daad qubul kijiye
    sadar
    imran

  4. Bala ki khoobsoorat gazal hui hai dinesh bhai ….Matla padh kar to Man bheeg gaya hai …sbhi ash-aar nihayat hi khoobsoorat huye hain…

    zindabad bhai zindabad

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