जो सोचो तो सज़ा है ये हमारे ही शिआर की
समा गई हैं धुंध में तजल्लियाँ नहार की
भटक रही हैं दर ब दर वो रौनक़ें बहार की
चमन से बाग़बान तक है जुस्तजू में ख़ार की
ये भीक की इमामतें, ये आरज़ी अनानियत
चलेंगी कितनी देर तक ये शुहरतें उधार की
ये कारी कर्बे-बेहिसी न ले ले मेरी जान ही
कहीं मुझे मिटा न दें ये साअतें क़रार की
वो हुस्न मेरी इल्तजा से बेनियाज़ ही रहा
ख़लाओं में बिखर गई सदा मिरी पुकार की
महब्बतों के खेल में हयात हार बैठे हम
बड़ी गराँ पड़ी हमें बिसात इस क़िमार की
सितम हज़ारहा सितम ही तोड़े हैं तो याद रख
बस एक ज़र्ब काफ़ी है जो पड़ गई लुहार की
तिजारतों की ये चमक निगाह को भी खा गई
“ये दास्तान है नज़र पे रौशनी के वार की”
मैं रेज़ा रेज़ा ज़ात को समेटूँ “नाज़ाँ” कब तलक
कोई तो हद भी चाहिये मिरे इस इंतशार की
मुमताज़ नाज़ां 09867641102
Mohtarma Mumtaaz sahiba aap ghazal ki riwayat ki paasdaari kar rahi heiN.. khoobsurat labo lehja, lafzon ka istemaal kamaal hai.. mubarakbaad!!
khoobsoorat ghazal…kuchh anoothe qawaafi bhi…fikr bhi umda …fan se aaraastagi bhi…wahhh wahhh
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल के लिए दाद कबूल फ़रमाइए।
सादर
नवनीत
सितम हज़ारहा सितम ही तोड़े हैं तो याद रख
बस एक ज़र्ब काफ़ी है जो पड़ गई लुहार की
तिजारतों की ये चमक निगाह को भी खा गई
“ये दास्तान है नज़र पे रौशनी के वार की”
मैं रेज़ा रेज़ा ज़ात को समेटूँ “नाज़ाँ” कब तलक
कोई तो हद भी चाहिये मिरे इस इंतशार की
वाह मुमताज़ जी वाह
वो हुस्न मेरी इल्तजा से बेनियाज़ ही रहा
ख़लाओं में बिखर गई सदा मिरी पुकार की
मैं रेज़ा रेज़ा ज़ात को समेटूँ “नाज़ाँ” कब तलक
कोई तो हद भी चाहिये मिरे इस इंतशार की
मुमताज़ जी बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है, दिली मुबारकबाद
मैं रेज़ा रेज़ा ज़ात को…..
महब्बतों के खेल में….
वाह नाज़ां जी क्या खूब कहन है आपका। कमाल
भरपूर दाद क़ुबूल फरमायें
सादर
पूजा:)
ये भीक की इमामतें, ये आरज़ी अनानियत
चलेंगी कितनी देर तक ये शुहरतें उधार की
वाह वाह वाह बेहतरीन ग़ज़ल।
पूरी ग़ज़ल भरपूर, हर वार क़ारी, उम्दा ग़ज़ल के लिए दाद क़ुबूल फ़रमाइये
acchi ghazal hui hai mumtaaz nazaan sahiba…. daad qubulen
ये भीक की इमामतें, ये आरज़ी अनानियत
चलेंगी कितनी देर तक ये शुहरतें उधार की
ये कारी कर्बे-बेहिसी न ले ले मेरी जान ही
कहीं मुझे मिटा न दें ये साअतें क़रार की
वो हुस्न मेरी इल्तजा से बेनियाज़ ही रहा
ख़लाओं में बिखर गई सदा मिरी पुकार की
kya khoob gazal hui Hia Mumtaz naza.n ji
dili daad
जो सोचो तो सज़ा है ये हमारे ही शिआर की
समा गई हैं धुंध में तजल्लियाँ नहार की
:- अच्छा मतला है ।
भटक रही हैं दर ब दर वो रौनक़ें बहार की
चमन से बाग़बान तक है जुस्तजू में ख़ार की
:- हुस्न-ए-मतला भी ख़ूब है ।
ये भीक की इमामतें, ये आरज़ी अनानियत
चलेंगी कितनी देर तक ये शुहरतें उधार की
:- बहुत ख़ूब, वाह, अच्छा शैर हुवा है ।
वो हुस्न मेरी इल्तजा से बेनियाज़ ही रहा
ख़लाओं में बिखर गई सदा मिरी पुकार की
:- वाह ,बहुत अच्छा शैर हुवा है ।
महब्बतों के खेल में हयात हार बैठे हम
बड़ी गराँ पड़ी हमें बिसात इस क़िमार की
:- ये शैर भी अच्छा है,वाह ।
तिजारतों की ये चमक निगाह को भी खा गई
“ये दास्तान है नज़र पे रौशनी के वार की”
:- अच्छी गिरह लगाई है ।
मैं रेज़ा रेज़ा ज़ात को समेटूँ “नाज़ाँ” कब तलक
कोई तो हद भी चाहिये मिरे इस इंतशार की
:- मक़्ता भी ख़ूब कहा है ।
मुमताज़ नाज़ाँ साहिब ,इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिये आपको दिल से दाद पेश करता हूँ,मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।