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ग़ज़ल:- दिल, मिरी उम्मीद पर बिलकुल खरा उतरा नहीं-इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’

दिल, मिरी उम्मीद पर बिलकुल खरा उतरा नहीं
आंसुओं का रात जो दरिया चढ़ा उतरा नहीं

जो बना मुझसे नतीजा सामने है आपके
मेरे हक़ में आसमां से फ़ैसला उतरा नहीं

चाँद काली रात ओढ़े आ गया था बाम पर
मेरी नज़रों से वो दिलकश हादसा उतरा नहीं

ज़ेह्न के दर बंद करके हुक्म की तामील हो
मुहतरम! मेरे गले ये मशवरा उतरा नहीं

ज़िद, सनक, दीवानगी शायद इसी का नाम है
मैं बुलंदी से भले ही गिर पड़ा उतरा नहीं

जंग लड़नी है उसे कुछ देवताओं के ख़िलाफ़
लाख समझाया मगर उसका नशा उतरा नहीं

इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’ 09818354784

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2 comments on “ग़ज़ल:- दिल, मिरी उम्मीद पर बिलकुल खरा उतरा नहीं-इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’

  1. ज़िद, सनक, दीवानगी शायद इसी का नाम है
    मैं बुलंदी से भले ही गिर पड़ा उतरा नहीं

    LAJAWAB


  2. ज़ेह्न के दर बंद करके हुक्म की तामील हो
    मुहतरम! मेरे गले ये मशवरा उतरा नहीं

    क्या खूब फरमाया है साहब ! दाद क़बूल हो…

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