मरकज़े-ख़ला थी मैं तो वो मेरे हिसार थे
फ़ासले जो चार सिम्त थे वो एक सार थे
किस तरह से काट दी ये ज़िन्दगी न पूछिये
ग़म मिले ख़ुशी मिली प’ सब के सब उधार थे
जिस जगह उरूज है वहीँ पे है ज़वाल भी
मुंह के बल गिरे वही हवा पे जो सवार थे
तू फ़क़त मिरे लिए था मैं रही तिरी सदा
इश्क़ के उसूल ये बिना लिखे क़रार थे
मंज़िलों की चाह में सफ़र पे तो निकल पड़े
कुछ ख़बर न थी, कहाँ थी मैं कहाँ दयार थे
जिस्म की हदों से दूर इश्क़ जब निकल गया
सामने खुले थे जो वो रूह के दयार थे
पूजा भाटिया 08425848550
स्वप्निल आपकी ये शागिर्द बहुत अच्छी जा रही है। शेर की बेटी ज़ाहिर है शेरनी ही होगी। भरपूर छलांग। ऐसी मुश्किल बह्र और ऐसा काम। आपसे ख़ानदान के बुज़ुर्गों का नाम रौशन होगा। बेटा ! आपकी ग़ज़लों को पढ़ कर मेरी आँखों की रौशनी बढ़ गयी है। जीती रहिये
प्रणाम दादा
आपका आशीर्वाद है ये। और इसकी दरकार हमेशा रहेगी।
🙂
आपकी बेटी
पूजा
Har she’r laajwaab
Bahut sunder peshkash hai Pooja ji
Lafz nahi mil rahe taareef ke liye..
bahut bahut mubaraqbaad
Shukriya nakul goutam sahab:)
मरकज़े-ख़ला थी मैं तो वो मेरे हिसार थे
फ़ासले जो चार सिम्त थे वो एक सार थे
ऐसा शेर कहने के लिए बरसों की साधना चाहिए फिर भी ऐसा शेर उतरे इसकी कोई गारंटी नहीं होती। पूरी ग़ज़ल इस बात का सबूत दे रही है क़ि आने वाला कल हमें एक बहुत कामयाब शायरा से रूबरू होने का मौका देगा। आपके शेर आपकी पुख्ता सोच की नुमाइंदगी कर रहे हैं। आप कामयाबी की बुलंदियां छुएँ ये ही दुआ करता हूँ। लिखती रहें।
आपकी दुआएं हैं नीरज जी।
हौंसला अफ़ज़ाई का शुक्रिया
पूजा भाटिया