प्रबंधन का अब उसको, सलीक़ा हो गया है
ख़ुदा सा सर्वव्यापी, दरिंदा हो गया है
किया बदसूरती का, बहुत उपहास जिसने
उसे ही ब्याह के दिन, मुँहासा हो गया है
मैं सच की रहगुज़र हूँ, कहें तीनों ही राहें
बड़ा भ्रामक वतन का, तिराहा हो गया है
सियासत का है जादू, परिंदों का शिकारी
लगाकर पंख उनके, फ़रिश्ता हो गया है
दवाओं का असर है, या ए.सी. का करिश्मा
हमारा ख़ून सारा, लसीका हो गया है
किये लाखों जतन पर, धरा के घूमते ही
अँधेरा तिलमिलाकर, सवेरा हो गया है
हरा भगवा ही केवल, बचे हैं आज इसमें
तिरंगा था कभी जो, दुरंगा हो गया है
धर्मेन्द्र कुमार सिंह 09418004272
धर्मेन्द्र साहब,
आपकी काविशें संभावनाओं का दर्पण हैं।
बहुत बहुत शुक्रिया कैफ़ साहब
किया बदसूरती का, बहुत उपहास जिसने
उसे ही ब्याह के दिन, मुँहासा हो गया है
मैं सच की रहगुज़र हूँ, कहें तीनों ही राहें
बड़ा भ्रामक वतन का, तिराहा हो गया है…bahut umdaa ghazal…kya khoob…daad qubule’n
– Kanha
बहुत बहुत शुक्रिया प्रखर साहब।
धर्मेंद्र भाई जी यानी धर्म से कहूं तो मिज़ाह का रंग खूब निखरा है। क्या बात है। मैं कई दिन बाद इधर लौट पाया लेकिन जब आया तो बहुत मज़ा आया।
एक शे’र पेशे-नज्र है :
हमें टांगों पे अपनी भरोसा हो गया है
स्कूटर जिंदगी का खटारा हो गया है।
तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ नवनीत साहब। स्नेह बनाए रखिएगा।
धर्मेन्द्र साहब
आपकी इस डिफरेंट फ्लेवर वाली बेहतरीन ग़ज़ल के लिए दिली दाद !!!
मैं सच की रहगुज़र हूँ, कहें तीनों ही राहें
बड़ा भ्रामक वतन का, तिराहा हो गया है
ये आज का सच है.
बहुत बहुत शुक्रिया पवन साहब
हरा भगवा ही केवल, बचे हैं आज इसमें
तिरंगा था कभी जो, दुरंगा हो गया है
आ. सज्जन सा. समसामयिक तथा साहसिक टिप्पणी है ,सियासत के हालात बयान करती अच्छी ग़ज़ल हुई है |मतले में जो सख्त टिप्पणी इशारों में की गई है उससे तो असहमत हूं किंतु शेर का शिल्प लासानी है |बहुत बहुत मुबारकबाद |
सादर
बहुत बहुत शुक्रिया खुरशीद साहब। स्नेह बना रहे।
किये लाखों जतन पर, धरा के घूमते ही
अँधेरा तिलमिलाकर, सवेरा हो गया है
अदभुद … क्या गिरह बाँधी है आपने, मुझे नहीं लगता इससे बेहतर तज़मींन हो सकती है
हरा भगवा ही केवल, बचे हैं आज इसमें
तिरंगा था कभी जो, दुरंगा हो गया है
और इस शेर के लिए विशेष बधाई , यथार्थ का आईना दिखाता हुआ शेर
धर्मेन्द्र जी आपकी शायरी का अंदाज़ बहुत पसंद आया, बहुत मुबारकबाद 🙂
बहुत बहुत शुक्रिया दिनेश साहब। इस हौसला अफ़जाई के लिए तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
धर्मेन्द्र साहब !! की पुस्तक ” ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर” हाल मे ही प्रकाशित हुई है और स्पष्ट है कि अप्रतिम और विलक्षण प्रतिभा के धनी धर्मेन्द्र सिंह ” सज्जन” गज़ल के मुआमले में अपनी दिशा और रह्गुज़र को ले कर कतई भ्रम में नहीं हैं –गज़ल को उन्होंने अना की पैरोकार , अलंकरण सेतु , या हास परिहास पने आस पास जैसा कोई पैरहन नहीं दिया है !! प्रतिभाशाली वो इतने हैं कि किसी भी मेयार की गज़ल कह सकते हैं और अपना लोहा मनवा सकते हैं और अपना सिक्का जमा सकते हैं –लेकिन उन्होंने जिस भाषा और जिन विषयों को ले कर गज़ल कहने को प्राथमिकता दी है उसकी एक बानगी इस गज़ल में मिलती है – प्रासंगिक और व्यावहारिक भाषा जिसमें हमारी समझने की सामर्थ्य सबसे अधिक है और वो विषय जो हमारे लिये महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हैं राजनैतिक उपालम्भ , सर्वहारा , और आर्थिक समस्यायें –हर शेर एक ज़िन्दा मंज़र हमारे सामने रख देता है !!! मजे की बात यह है कि शिल्प और कथ्य दोनो में सामर्थ्य उन्हें हासिल है —
सियासत का है जादू, परिंदों का शिकारी
लगाकर पंख उनके, फ़रिश्ता हो गया है
जदीदियत दूसरा पहलू है –उनका सोच मजबूत और नया है इस गिरह को रिपीट नहीं किया जा सकता यह मौलिक और प्रभावशाली सोच के सब्ब उपजी है –
किये लाखों जतन पर, धरा के घूमते ही
अँधेरा तिलमिलाकर, सवेरा हो गया है
शब्द और उसकी सिफत पर नज़र भी पैनी है और पकड़ मजबूत है—
हरा भगवा ही केवल, बचे हैं आज इसमें
तिरंगा था कभी जो, दुरंगा हो गया है
मैं इस गज़ल के हवाले से दोस्तो से कहना चाहूँगा कि धर्मेन्द्र इस पोर्टल पर हमें उपलब्ध हैं ही उनसे उनकी किताब पर उनके फोन नम्बर पर उनसे चर्चा किया जा सकता है और इस सुन्दर संकलन को पढा जा सकता है !!
जहाँ तक इस गज़ल का सवाल है –उनकी हर गज़ल की भाँति यह ग़ज़ल भी नई और प्रभावित करने की सामर्थ्य रखती है –मयंक
लेखनी में आब-ए-जमजम का असर रखते हैं वो
देव पत्थर को बनाने का हुनर रखते हैं वो
मयंक भाई आपने मेरी बोलती बंद कर दी है। इस शे’र के अलावा मैं कुछ नहीं कह पाऊँगा। तह-ए-दिल से शुक्रिया।
dharmendra sahab mizah ka rang achchha hai….
शुक्रिया सिकंदर साहब
तिरंगा था कभी जो दुरंगा हो गया है। चुभने वाला सच। आईना दिखाने वाला शेर। कोई देखेगा खुद को ? हम देखेंगे खुद को ? वाह वाह।
बहुत बहुत शुक्रिया राजमोहन साहब