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T-17/13 ऐसा नहीं कि शह्र में कोई शजर न था-इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’

ऐसा नहीं कि शह्र में कोई शजर न था
हाँ दूर-दूर कोई परिंदा मगर न था

सहरा भी, आसमान भी, वहशत भी, रात भी
सब कुछ था मेरे हिस्से में बस एक घर न था

मुंसिफ थी रूह ज़ीस्त खड़ी कटघरे में थी
कैसे कहूं कि मुझको किसी तौर डर न था

पागल थी वो तो हम भी तो कम बावले न थे
हम पर किसी की बात का कोई असर न था

फिर रौशनी हमारी पकड़ से निकल गयी
कोई दिया ख़याल की दहलीज़ पर न था

घर से गया था शह्र की गर्दन वो काटने
लौटा तो उसका अपने ही कांधों पे सर न था

इक उम्र की किताब जिसे दर्ज कर सके
इतना भी मुख़्तसर मिरा दर्दे-सफ़र न था

आतीं ज़ुरूर आपके चेहरे पे रौनक़ें
आँखों में कोई ख़ाब का टुकड़ा मगर न था

देते हरेक बात का मुंहतोड़ हम जवाब
लेकिन हमारा ध्यान तिरी बात पर न था

इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’ 09818354784

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29 comments on “T-17/13 ऐसा नहीं कि शह्र में कोई शजर न था-इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’

  1. बहुत खूब सिकंदर साहब, अच्छी ग़ज़ल हुई है। दिली दाद कुबूल कीजिए

  2. ऐसा नहीं कि शह्र में कोई शजर न था
    हाँ दूर-दूर कोई परिंदा मगर न था..kya khoob matla hai…

    फिर रौशनी हमारी पकड़ से निकल गयी
    कोई दिया ख़याल की दहलीज़ पर न था…kya she’r hai dada..lajawab

    देते हरेक बात का मुंहतोड़ हम जवाब
    लेकिन हमारा ध्यान तिरी बात पर न था…wah wah dada…behatreen ghazal hui hai…dhero’n daad

    -Kanha

  3. मुंसिफ थी रूह ज़ीस्त खड़ी कटघरे में थी
    कैसे कहूं कि मुझको किसी तौर डर न

    वाह उस्ताद जी….क्या खूब शेर हुआ है। पूरी ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई।

  4. अरसे से मुंतजर था आपकी ग़ज़ल का
    बहुत बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है दादा
    फिर रौशनी हमारे पकड़ से निकल गई.”आपकी शैली ….आपकी पहचान ….,ख्यालों के नई दुनिया में ले जाती हुई ये ग़ज़ल
    दिली दाद कुबूल कीजिये
    With regards
    Alok

  5. IRSHAD BHAI….achchhi ghazal hui he
    phir raushni..wahhhh wahhhh..kya lajwaab sher hua he
    sabhi sher pasand aaye….bemisaal

  6. घर से गया था शह्र की गर्दन वो काटने
    लौटा तो उसका अपने ही कांधों पे सर न था

    इक उम्र की किताब जिसे दर्ज कर सके
    इतना भी मुख़्तसर मिरा दर्दे-सफ़र न था….

    behatreen sher huye hain Sikandar Sahab….mubaarakbaad..

  7. सहरा भी, आसमान भी, वहशत भी, रात भी
    सब कुछ था मेरे हिस्से में बस एक घर न था

    मुंसिफ थी रूह ज़ीस्त खड़ी कटघरे में थी
    कैसे कहूं कि मुझको किसी तौर डर न था
    आ. इरशाद साहब उम्दा ग़ज़ल हुई है ,ढेरों दाद कबूल फरमाएं |

    फिर रौशनी हमारी पकड़ से निकल गयी
    कोई दिया ख़याल की दहलीज़ पर न था वा…..ह वा….ह वा…ह
    इक उम्र की किताब जिसे दर्ज कर सके
    इतना भी मुख़्तसर मिरा दर्दे-सफ़र न था बहुत उम्दा दरों दाद

  8. irshaad bhai bahut umda ghazal hui hai.. matla aur uske baad ka she’r to behad shaandaar hain… ankhon me koi khaab ka tukda bhi… behad umdaa hai.. bharpoor daad… lekin sabse ziyada daad.. koi diya khayal ki daleez par n tha… kya accha sher hua hai.. waah waah….

  9. इरशाद भाई कमाल की ग़ज़ल हुई है! भरपूर दाद और मुबारकबाद!

  10. ऐसा नहीं कि शह्र में कोई शजर न था
    हाँ दूर-दूर कोई परिंदा मगर न था

    इन हालात पर मशवरा /गुज़ारिश // ऐलान सब आ चुके है —

    सायबाँ खनाबदोशों के हवाले कर दे
    ये घना पेड़ परिंदो के हवाले कर दे –मुनव्वर

    दरअस्ल ये मेरी नहीं दरिया की नफी है
    पानी के लिए कोइ परिंदा नहीं उतरे –अ क परवाज़ी

    सहरा भी, आसमान भी, वहशत भी, रात भी
    सब कुछ था मेरे हिस्से में बस एक घर न था
    मंज़र खूब बोल रहा है और शेर में अहसास की शिद्दत उतर आई है

    मुंसिफ थी रूह ज़ीस्त खड़ी कटघरे में थी
    कैसे कहूं कि मुझको किसी तौर डर न था

    मैं ही कातिल हूँ मैं ही मुंसिफ हूँ
    कोइ सूरत नहीं रिहाई की

    पागल थी वो तो हम भी तो कम बावले न थे
    हम पर किसी की बात का कोई असर न था

    इब्तिदाए इश्क है –पगली और बावले की जोड़ी –सलामत रहे शाइरी में ऐसे शेर हमेशा अच्छे लगते है –हज़ार बार ज़माना इधर से गुआरा है लेकिन इस रहगुज़र का रंग नया ही रहता है

    फिर रौशनी हमारी पकड़ से निकल गयी
    कोई दिया ख़याल की दहलीज़ पर न था
    सुन्दर शेर है –शिल्प दिलकश है !!

    घर से गया था शह्र की गर्दन वो काटने
    लौटा तो उसका अपने ही कांधों पे सर न था

    याने कि कुछ कामयाब हो के लौटा –शहर की गर्दन न सही नाक तो कट ही गयी

    इक उम्र की किताब जिसे दर्ज कर सके
    इतना भी मुख़्तसर मिरा दर्दे-सफ़र न था
    ऊला मिसरा क्या खूब है और शेर बहुत सुन्दर है

    देते हरेक बात का मुंहतोड़ हम जवाब
    लेकिन हमारा ध्यान तिरी बात पर न था
    लेकिन हमारा ध्यान तिरी बात पर न था”””’अगर ये सीख लिया तो ज़िंदगी ख़ूबसूरत हो गयी समझिये –हर शोर आपकी आवाज़ गुम करने के लिए पैदा किया जाता है –इसे नहीं सुनना है !!! बहुत खूब !!!

    इरशाद भाई!! दाद !!! इंतज़ार था आपकी ग़ज़ल का –शुभकामनाये –मयंक

  11. Irshad sahab

    आतीं ज़ुरूर आपके चेहरे पे रौनक़ें
    आँखों में कोई ख़ाब का टुकड़ा मगर न था

    घर से गया था शह्र की गर्दन वो काटने
    लौटा तो उसका अपने ही कांधों पे सर न था

    इक उम्र की किताब जिसे दर्ज कर सके
    इतना भी मुख़्तसर मिरा दर्दे-सफ़र न थास

    सहरा भी, आसमान भी, वहशत भी, रात भी
    सब कुछ था मेरे हिस्से में बस एक घर न था

    ye sher mere saath rahenge.

    khoobsoorat ghazal ke liye badhai..

  12. ऐसा नहीं कि शह्र में कोई शजर न था
    हाँ दूर-दूर कोई परिंदा मगर न था

    सहरा भी, आसमान भी, वहशत भी, रात भी
    सब कुछ था मेरे हिस्से में बस एक घर न था

    मुंसिफ थी रूह ज़ीस्त खड़ी कटघरे में थी
    कैसे कहूं कि मुझको किसी तौर डर न था

    इक उम्र की किताब जिसे दर्ज कर सके
    इतना भी मुख़्तसर मिरा दर्दे-सफ़र न था

    अच्छी गज़ल के लिए मुबारकबाद!! ये शेर बेहद पसंद आए..

  13. SIKANDAR SAHAB , MATLA, ASH’AAR , MAQTA KIS KIS KI DAAD DI JAAYE, POORI GHAZAL UMDA HAI. ACHHOOTE MAZAAMEEN, BANDISH BHI KHOOB, MAZAA AA GAYA, MUBAARAK BAAD QABOOL KARE’N.

  14. जनाब इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’
    सहरा भी, आसमान भी, वहशत भी, रात भी
    सब कुछ था मेरे हिस्से में बस एक घर न था

    मुंसिफ थी रूह ज़ीस्त खड़ी कटघरे में थी
    कैसे कहूं कि मुझको किसी तौर डर न था

    क्‍या खूब कहा! वाह!

  15. सहरा भी, आसमान भी, वहशत भी, रात भी
    सब कुछ था मेरे हिस्से में बस एक घर न था

    पागल थी वो तो हम भी तो कम बावले न थे
    हम पर किसी की बात का कोई असर न था
    achchhi gazal kahi hai sahib badhai

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