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T-17/10 माना रहे-वफ़ा में कोई मोतबर न था-मुमताज़ नाज़ाँ

माना रहे-वफ़ा में कोई मोतबर न था
फिर भी मुहब्बतों का शजर बेसमर न था

दीवानगी से रब्त ख़िरद को अगर न था
शहरे-मसालिहत से जूनून का गुज़र न था

ख़ौफ़ो-ज़रर के खेल से उकता गये थे सब
अब के था बस इताब, किसी दिल में डर न था

हर सिम्त दूर-दूर तलक थीं सियाहियां
इस बार अपनी रात में कोई क़मर न था

जाने अक़ीदतों में कहाँ रह गयी कमी
पहुंचे जो अर्श तक वो दुआ में असर न था

बचपन के दिन थे और थे हम और मस्तियाँ
दुनिया के ज़ेरो-बाम का हमें दर्दे-सर न था

मुरझा गये तड़प के यहीं जाने कितने फूल
इस गुलशने-जहाँ में कोई दीदावर न था

दिल था वहीं दिमाग़ वहीं, चैन भी वहीं
“उस की गली से फिर भी हमारा गुज़र न था”

‘मुमताज़’ आगही ने हमें कह दिया था सब
क़िस्मत की साज़िशों से ये दिल बेख़बर न था

मुमताज़ नाज़ाँ 09167666591/09867641102

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16 comments on “T-17/10 माना रहे-वफ़ा में कोई मोतबर न था-मुमताज़ नाज़ाँ

  1. बहुत खूब मुमताज़ साहिबा, अच्छे अश’आर हुए हैं। दाद कुबूल कीजिए

  2. जाने अक़ीदतों में कहाँ रह गयी कमी
    पहुंचे जो अर्श तक वो दुआ में असर न था

    बचपन के दिन थे और थे हम और मस्तियाँ
    दुनिया के ज़ेरो-बाम का हमें दर्दे-सर न था

    आपने सारे शेर बहुत उम्दा कहे हैं। गिरह भी क्या खूब लगी है। वाह वाह…..

  3. Behad umdaa ghazal hui hai mohtarma. .behatreen matla. ..Girah bhi Kya khoob lagai hai. ..daad

    -Kanha

  4. दीवानगी से रब्त ख़िरद को अगर न था
    शहरे-मसालिहत से जूनून का गुज़र न था

    ख़ौफ़ो-ज़रर के खेल से उकता गये थे सब
    अब के था बस इताब, किसी दिल में डर न था

    bahut sundar ghazal hai Mumtaaz Sahiba…..bahut-2 mubaarakbaad Aapko….

  5. माना रहे-वफ़ा में कोई मोतबर न था
    फिर भी मुहब्बतों का शजर बेसमर न था

    बचपन के दिन थे और थे हम और मस्तियाँ
    दुनिया के ज़ेरो-बाम का हमें दर्दे-सर न था
    आ. मुमताज जी बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है बचपन वाले शेर ने वाकई बचपन याद दिला दिया है |ढेरों दाद कबूल फरमाएं

  6. achchi ghazal…umdaa ashaar…buland khayalaat…
    ummeed hai ab sehhatmand honNgii…khuda shifayaab kare
    dr.azam

  7. आदरणीया,

    आदाब।
    सारी ग़ज़ल बहुत अच्‍छी लेकिन यह शे’र मुझे खा़सतौर पर पसंद आया :

    जाने अक़ीदतों में कहाँ रह गयी कमी
    पहुंचे जो अर्श तक वो दुआ में असर न था

    आदरणीय तुफ़ैल चतुर्वेदी साहब के कमेंट से पता चला कि आप अस्‍पताल में हैं। दुआ है कि आप जल्‍द स्‍वस्‍थ हों।
    आदर सहित
    नवनीत

  8. मुमताज़ नाज़ाँ साहिबा,

    आप के कलाम से कुछ आशना हो रहा हूं। उर्दू का अपना जो बात कहने का ढंग है वो आपके यहां है और काविशें भी बराबर हैं। क़ब्‍लज़ दाद दुआ-ए-सेहत।

  9. poori ki poori ghazal bahut umdaa hai…matle se lekar maqte tak har she’r par daad…

  10. UMDA GHAZAL, MUBARAK HO,

  11. ख़ौफ़ो-ज़रर के खेल से उकता गये थे सब
    अब के था बस इताब, किसी दिल में डर न था ..क्या अच्छी ग़ज़ल है! वाह! वाह!

  12. मुमताज़ साहिबा आपके कलाम की कैसे तारीफ़ करूँ और कैसे शुक्रिया अदा करूँ ? अस्पताल में हो कर भी आपने लफ्ज़ के लिये वक़्त निकला और इतनी उम्दा ग़ज़ल भेजी. बहुत करम है आपका. आप जैसे दोस्तों के सहारे ही अदब की खिदमत का ये कारवां गामज़न है

  13. जाने अक़ीदतों में कहाँ रह गयी कमी
    पहुंचे जो अर्श तक वो दुआ में असर न था

    बचपन के दिन थे और थे हम और मस्तियाँ
    दुनिया के ज़ेरो-बाम का हमें दर्दे-सर न था

    mumtaaz ji behad hi sanjeeda ghazal ke liye mubaraq baad
    poori ghazal kabile-daad magar ye do sher khaase pasand aaye
    direct dil se ………….NAZIR NAZAR

  14. माना रहे-वफ़ा में कोई मोतबर न था
    फिर भी मुहब्बतों का शजर बेसमर न था

    मुहतरमा !! हौसले और उम्मीद की बुलंदी को अलफ़ाज़ दिए शेर ने और लहजे की नर्मी भी गज़ब रंग दे गयी बयान को दाद !!

    दीवानगी से रब्त ख़िरद को अगर न था
    शहरे-मसालिहत से जूनून का गुज़र न था

    पासबाने अक्ल दिल से दूर रहे तो अच्छा है –इस शेर पर खूब दाद !! सानी मिसरा रिवायती सवाल को नए मोड़ पर ले आया है !!!

    ख़ौफ़ो-ज़रर के खेल से उकता गये थे सब
    अब के था बस इताब, किसी दिल में डर न था

    डर की इंतेहा उसी के ज़वाल का कारण बनी !! खूब !!

    हर सिम्त दूर-दूर तलक थीं सियाहियां
    इस बार अपनी रात में कोई क़मर न था

    जाने अक़ीदतों में कहाँ रह गयी कमी
    पहुंचे जो अर्श तक वो दुआ में असर न था

    बचपन के दिन थे और थे हम और मस्तियाँ
    दुनिया के ज़ेरो-बाम का हमें दर्दे-सर न था

    ऊपर के ३ शेर तस्लीम !! अच्छे कहे है !!!

    मुरझा गये तड़प के यहीं जाने कितने फूल
    इस गुलशने-जहाँ में कोई दीदावर न था

    ये दौरे हाज़िर का अलमिया भी है और हमारे काले नसीब का एक उभरता हुआ नक्श भी !!!

    दिल था वहीं दिमाग़ वहीं, चैन भी वहीं
    “उस की गली से फिर भी हमारा गुज़र न था”
    खूब गिरह लगाई है !!

    ‘मुमताज़’ आगही ने हमें कह दिया था सब
    क़िस्मत की साज़िशों से ये दिल बेख़बर न था

    संजीदगी भी बहुत बार मुस्तकबिल की आहट दे देती है … आगही तक पहुंचने वाला तो नियति को पढ़ ही लेगा। । वाह !!!

    मुमताज़ नाज़ाँ साहबा !! मुबारकबाद क़ुबूल कीजिये –मयंक

  15. ACHCHHI GHAZAL HUI HAI, GIRAH BHI KHOOB LAGI HAI

  16. acchi hai thanks…

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