मिला न खेत से उसको भी आबो-दाना क्या
किसान शह्र को फिर इक हुआ रवाना क्या
कहाँ से लाये हो पलकों पे तुम गुहर इतने
तुम्हारे हाथ लगा है कोई ख़ज़ाना क्या
उमस फ़ज़ा से किसी तौर अब नहीं जाती
कि तल्ख़ धूप क्या, मौसम कोई सुहाना क्या
तमाम तर्ह के समझौते करने पड़ते हैं
मियां मज़ाक़ गृहस्थी को है चलाना क्या
गुनाह कुछ तो मुझे बेतरह लुभाते हैं
ये राज़ खोल ही देता हूँ अब छुपाना क्या
हो दुश्मनी भी किसी से तो दाइमी क्यूँ हो
जो टूट जाये ज़रा में वो दोस्ताना क्या
ख़बरनवीस नहीं हूँ मैं एक शायर हूँ
तमाम मिसरे मिरे हैं, नया-पुराना क्या
न धर ले रूप कभी झोंक में तलातुम का
‘वो नर्म रौ है नदी का मगर ठिकाना क्या’
करो तो मुंह पे मलामत करो मिरी ‘सौरभ’
ये मेरी पीठ के पीछे से फुसफुसाना क्या.
सौरभ शेखर 09873866653
ख़बरनवीस नहीं हूँ मैं एक शायर हूँ
तमाम मिसरे मिरे हैं, नया-पुराना क्या
कमाल की ग़ज़ल के साथ अलहदा अंदाज़-ए-बया ………वाह सौरभ भाई वाह …नज़ीर
बहुत शुक्रिया नज़ीर भाई!
Aahahahahaha, wah wah wah, kya haseen ghazal kahi hai janaab, kya lehja hai, kya andaaz e bayaan hai, subhan Allah
दिल से मशकूर हूँ मुमताज़ साहिबा!
कहाँ से लाये हो पलकों पे तुम गुहर इतने
तुम्हारे हाथ लगा है कोई ख़ज़ाना क्या
न धर ले रूप कभी झोंक में तलातुम का
‘वो नर्म रौ है नदी का मगर ठिकाना क्या’ behtareen sher aur behtareen girah ke liye mubaarak baad pesh karta hu’n.
शुक्रगुज़ार हूँ जनाब!
विद्यापति जी का एक मैथिली में गीत है. ‘ तोहि सरिस तोहि माधव ‘ …माधव तेरे जैसा तो बस तू ही है तेरी उपमा किससे दूँ. आपके कलाम का भी वही आलम है. बिलकुल अपनी कहन. ये इसी तरह चलता रहा तो आपका अपना रंग अभी से बन जायेगा. वाह-वाह, अच्छी ग़ज़ल के लिये बधाई
अपनी ग़ज़ल पर उस्ताद की दाद से बढ़ कर कोई और पुरस्कार नहीं हो सकता. आपकी दाद बहुत ख़ास है मेरे लिए दादा!
Saurabh bhaiya ,,bilkul alag andaz me..,parampragat shayri se hat ke…gazal kahi hai ,ak alag mood ki gazal…..kya kahne.
गुनाह कुछ तो मुझे बेतरह लुभाते हैं
ये राज़ खोल ही देता हूँ अब छुपाना क्या
हो दुश्मनी भी किसी से तो दाइमी क्यूँ हो
जो टूट जाये ज़रा में वो दोस्ताना क्या
puri gazal hi khoob bhayi…,dheron daad
आलोक भाई आप शायरी के क्षितिज पे तेजी से उभरते तारे हैं…ग़ज़ल और उसका रंग पसंद करने के लिए बहुत शुक्रिया.
सौरभ साहब,
आदाब।
किसी एक शे’र की क्या बात करूं, मैं पूरी ग़ज़ल मुरीद हो गया हूं।
बहुत खूब….
बहुत उम्दा।।।।।।
शुक्रिया।
नवनीत
नवनीत भाई आपकी मुहब्बतों का आभार!
ज़ुबान रवाँ है और ग़ज़ल की ज़मीन आपने खूब पकड़ी है सौरभ !! वगर्ना –ये शेर नहीं होते —
कहाँ से लाये हो पलकों पे तुम गुहर इतने
तुम्हारे हाथ लगा है कोई ख़ज़ाना क्या
गुनाह कुछ तो मुझे बेतरह लुभाते हैं
ये राज़ खोल ही देता हूँ अब छुपाना क्या
ग़ज़ल राज्य सभा के ही सन्दर्भों से आरम्भ होती है और लोक सभा के सन्दर्भों पर समाप्त होती है –खबरनवीस और गृहस्थी वाले शेर भी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से गज़ल को जोड़ने की अच्छी कोशिशें हैं –ग़ज़ल पसन्द आई – मयंक
भैया राज्य सभा और लोक सभा का अभिप्रेत तो ख़ूब रहा! ग़ज़ल आपको पसंद आई तो कामयाब है! आभार!
कहाँ से लाये हो पलकों पे तुम गुहर इतने
तुम्हारे हाथ लगा है कोई ख़ज़ाना क्या
Kya kehne… Kya achha sher kaha hai Saurabh Bhai aapne.. waah
उमस फ़ज़ा से किसी तौर अब नहीं जाती
कि तल्ख़ धूप क्या, मौसम कोई सुहाना क्या
Aur ye sher … kya kahun… Umas faza se kisi taur ab nahi jaati… ufff
Behad umda gazal… 🙂
दिनेश भाई बहुत शुक्रिया!
दादा ने कहीं लिखा या कभी फोन पर कहा था कि सौरभ आप बहुत जल्द अपने मूड पर मुहर लगवा लेंगे, और ये हो गया भाई। मतले के सिवा गृहस्थी और गुनाह बहुत वाचाल लगे। यहाँ वाचाल से मेरा तात्पर्य उस तरह के बालक से है जो आगे बढ़ते बंदे को ज़ुरूरत पड़े तो कपड़े पकड़ कर भी न सिर्फ़ रोक लेता है बल्कि अपनी बात सुनाने पर भी रहता है। ऐसे ख़याल नज़्म करते वक़्त ग़ज़ल के मूल स्वर के निकट रहना बड़ी चुनौती होती है और सरस्वती की कृपा जिस पर हो वह इस प्रयास में सफल होता है। बधाई भाई।
बड़े भाई आपने हमेशा हौसला बढ़ाया है मेरा..तहे-दिल से शुक्रिया.
Achchi ghazal hui saurabh bhai mubarakbaad qubool karen
इरशाद भाई आभार!
सौरभ भाई.. बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है…
कहाँ से लाये हो पलकों पे तुम गुहर इतने
तुम्हारे हाथ लगा है कोई ख़ज़ाना क्या
ये शे’र बहुत पसंद आया.. साथ ही गिरह पर भी दाद क़ुबूल करें.. मेरे लिए मुश्किल काम साबित हो रहा है… 🙂
स्वप्निल भाई बहुत शुक्रिया…और जो देर से आता है अमूमन दुरुस्त आता है..:)
मिला न खेत से उसको भी आबो-दाना क्या
किसान शह्र को फिर इक हुआ रवाना क्या
कहाँ से लाये हो पलकों पे तुम गुहर इतने
तुम्हारे हाथ लगा है कोई ख़ज़ाना क्या….waaah
न धर ले रूप कभी झोंक में तलातुम का
‘वो नर्म रौ है नदी का मगर ठिकाना क्या’…kya behatreen girah hai
करो तो मुंह पे मलामत करो मिरी ‘सौरभ’
ये मेरी पीठ के पीछे से फुसफुसाना क्या…ahaa ..kya kehne
…nihaayat umdaa ghazal hui hai Bhaiya…maza aa gya..marhabaa
saadar
Snehakanchhi Anuj
-kanha
प्रखर भाई आपकी मुहब्बतों के लिए तहे दिल से शुक्रिया…आपकी ग़ज़ल का इंतज़ार है.
peeth ke peechhe nahin munh par hi taareef karunga,bahut khoob gazal!
सिंह साहब बहुत शुक्रिया..बहरहाल,गुज़ारिश तो मलामत की थी…:)
कहाँ से लाये हो पलकों पे तुम गुहर इतने
तुम्हारे हाथ लगा है कोई ख़ज़ाना क्या
आ.सौरभ सा. बहुत बहुत दाद कबूल फरमाए ,निहायत ही उम्दा ग़ज़ल हुई है
गुनाह कुछ तो मुझे बेतरह लुभाते हैं
ये राज़ खोल ही देता हूँ अब छुपाना क्या
वा………..ह
खुरशीद साहब आपके स्नेह से गदगद हूँ..तहे दिल से शुक्रिया.
सौरभ जी, बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने, सभी शेर पसंद आये. गिरह भी खूब है..
राजीव भाई आभार! आपकी ग़ज़ल का इंतज़ार है!